उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
दारोगा–देवीदीन वही है न जिनके दोनों लड़के...
सिपाही–जी हाँ, वही है।
इतने में रमानाथ भी दारोग़ा के सामने हाजि़र किया गया। दारोग़ा ने उसे सिर से पाँव तक देखा, मानो मन में उसका हुलिया मिला रहे हों। तब कठोर दृष्टि से देखकर बोले–अच्छा, यह इलाहाबाद का रमानाथ है। खूब मिले भाई। छः महीने से परेशान कर रहे हो। कैसा साफ हुलिया है कि अन्धा भी पहचान ले ! यहाँ कब से आये हो?
कांस्टेबल ने रमा को परामर्श दिया–सब हाल सच-सच कह दो तो, तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की जायेगी।
रमा ने प्रसन्नचित्त बनने की चेष्टा करके कहा–अब तो आपके हाथ में हूँ, रियायत कीजिए या सख्ती कीजिए। इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी में नौकर था। हिमाकत कजिए या बदनसीबी, चुंगी के चार सौ रुपये मुझसे खर्च हो गये। मैं वक्त पर रुपये जमा न कर सका। शर्म के मारे घर के आदमियों से कुछ न कहा, नहीं तो इतने रुपये का इन्तजाम हो जाना कोई मुश्किल न था। जब कुछ बस न चला, तो वहाँ से भागकर यहाँ चला आया। इसमें एक हर्फ़ भी गलत नहीं है।
दारोगा ने गम्भीर भाव से कहा–मामला कुछ संगीन है, क्या कुछ सराब का चस्का पड़ गया था?
‘मुझसे क़सम ले लीजिए, जो शायद कभी सराब मुँह से लगायी हो।’
कांस्टेबल ने विनोद करके कहा–मुहब्बत के बाज़ार में लुट गये होंगे, हुजूर।
रमा ने मुस्कराकर कहा–मुझसे फ़ाकेमस्तों का वहाँ कहाँ गुजर?
दारोग़ा–तो क्या जुआ खेल डाला? या बीवी के लिए जेवर बनवा डाले !
रमा झेंपकर रह गया। अपराधी मुस्कराहट उसके मुख पर रो पड़ी।
दारोग़ा–अच्छी बात है, तुम्हें भी यहाँ खासे मोटे जेवर मिल जायेंगे ! एकाएक बूढ़ा देवीदीन आकर खड़ा हो गया।
दारोग़ा ने कठोर स्वर में कहा–क्या काम है यहाँ?
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