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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


दारोग़ाजी ने विनोद करके कहा–कहो चौधरी, लाये रुपये?

देवी–जब कह गया कि मैं थोड़ी देर में आता हूँ, तो आपको मेरी राह देख लेनी चाहिए थी। चलिए अपने रुपये लीजिए।

दारोगा–खोदकर निकाले होंगे?

देवी–आपके अकबाल से हजार-पाँच सौ अभी ऊपर ही निकल सकते हैं। जमीन खोदने की जरूरत नहीं पड़ी। चलो भैया, बुढ़िया कब से खड़ी है। मैं रुपये चुकाकर आता हूँ। यह तो इसपिट्टर साहब थे न? पहले इसी थाने में थे।

दारोगा–तो भाई, अपने रुपये ले जाकर उसी हाँडी में रख दो। अफसरों की सलाह हुई है कि इन्हें छोड़ना न चाहिए। मेरे बस की बात नहीं है।

इन्सपेक्टर साहब तो पहले ही दफ्तर में चले गये थे। यो तीनों आदमी बातें करते उसके बगल वाले कमरे में गये।

देवीदीन ने दारोग़ा की बात सुनी, तो उसकी भौंहें तिरछी हो गयीं। बोला–दारोग़ाजी, मरदों की एक बात होती है, मैं तो यही जानता हूँ। मैं रुपये आपके हुक्म से लाया हूँ। आपको अपना कौल पूरा करना पड़ेगा। कहके मुकर जाना नीचों का काम है।

इतने कठोर शब्द सुनकर दारोग़ाजी को भी भन्ना जाना चाहिए था; पर उन्होंने जरा भी बुरा न माना। हँसते हुए बोले–भई अब चाहे नीच कहो, चाहे दगाब़ाज कहो; पर हम इन्हें छोड़ नहीं सकते। ऐसे शिकार रोज नहीं मिलते। कौल के पीछे अपनी तरक्की नहीं छोड़ सकता।

दारोग़ा के हँसने पर देवीदीन और भी तेज हुआ–तो आपने कहा किस मुँह से था?

दारोगा–कहा तो इसी मुँह से था, लेकिन मुँह हमेशा एक-सा तो नहीं रहता। इसी मुँह से जिसे गाली देता हूँ, उसकी इसी मुँह से तारीफ भी करता हूँ।

देवी–(तिनककर) यह मूछें मुड़वा डालिए।

दारोगा–मुझे बड़ी खुशी से मंजूर है। नीयत तो मेरी पहले ही थी; पर शर्म के मारे न मुड़वाता था। अब तुमने दिल मजबूत कर दिया।

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