उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
देवी–हँसिए मत दारोगाजी, आप हंसते है और मेरा खून जला जाता है। मुझे चाहे जेहल ही क्यों न हो जाये; लेकिन मैं कप्तान साहब से ज़रूर कह दूँगा। हूँ तो टके का आदमी, पर आपके अकबाल से बड़े अफसरों तक पहुँच है।
दारोगा–अरे यार, तो क्या सचमुच कप्तान साहब से मेरी शिकायत कर दोगे?
देवीदीन ने समझा कि यह धमकी कारगर हुई। अकड़कर बोला–आप जब किसी की नहीं सुनते, बात कहकर मुकर जाते हैं, तो दूसरे भी अपनी-सी करेंगे हैं। मेम साहब तो रोज ही दुकान पर आती हैं।
दारोगा–कौन, देवी? अगर तुमने साहब या मेम साहब से मेरी कुछ शिकायत की, तो कसम खाकर कहता हूँ, घर खुदवाकर फेंक दूंगा !
देवी–जिस दिन मेरा घर खुदेगा, उस दिन यह पगड़ी और चपरास भी न रहेगी, हुजूर।
दारोगा–अच्छा तो मारो हाथ-पर-हाथ। हमारी तुम्हारी दो-दो चोंटे हो जायँ, यही सही।
देवी–पछताओगे सरकार, कहे देता हूँ पछताओगे।
रमा अब जब्त न कर सका। अब वह देवीदीन के बिगड़ने का तमाशा देखने के लिए भीगी बिल्ली बना खड़ा था। कहकहा मारकर बोला–दादा, दारोगाजी तुम्हें चिढ़ रहे हैं। हम लोगों में ऐसी सलाह हो गयी है कि मैं बिना कुछ लिये-दिये ही छूट जाऊँगा, ऊपर से नौकरी भी मिल जायगी। साहब ने पक्का वादा किया है। मुझे अब यही रहना होगा।
देवीदीन ने रास्ता भटके हुए आदमी की भाँति कहा–कैसी बात है भैया, क्या कहते हो ! क्या पुलिस वालों के चकमे में आ गये? इसमें कोई-न-कोई चाल जरूर छिपी होगी।
रमा ने इतमीनान के साथ कहा–और कोई बात नहीं, एक मुकदमे में शहादत देनी पड़ेगी।
देवीदीन ने संशय से सिर हिलाकर कहा–झूठा मुकदमा होगा?
रमा–नहीं दादा, बिलकुल सच्चा मामला है। मैंने पहले ही पूछ लिया है।
देवीदीन की शंका शांत न हुई। बोला–मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता भैया, ज़रा सोच-समझकर काम करना। अगर मेरे रुपयों को डरते हो, तो यही समझ लो कि देवीदीन ने अगर रुपयों की परवाह की होती, तो आज लखपती होता। इन्हीं हाथों से सौ-सौ रुपये रोज कमाये और सब के सब उड़ा दिये हैं। किस मुकदमें में शहादत देनी है? कुछ मालूम हुआ?
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