उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
दारोग़ाजी ने रमा को जवाब देने का अवसर न देकर कहा–वही डकैतियों वाला मुआमला है जिसमें कई गरीब आदमियों की जान गयी थी। इन डाकुओं ने सूबे भर में हंगामा मचा रक्खा था। उनके डर के मारे कोई आदमी गवाही देने पर राजी नहीं होता।
देवीदीन ने उपेक्षा के भाव से कहा–अच्छा तो यह मुखबिर बन गये? यह बात है। इसमें तो जो पुलिस सिखायेगी वही तुम्हें कहना पड़ेगा भैया। मैं छोटी समझ का आदमी हूँ, इन बातों का मरम क्या जानूँ; पर मुझसे मुखबिर बनने को कहा जाता, तो मैं न बनता, चाहे कोई लाख रुपये देता। बाहर के आदमी को क्या मालूम कौन अपराधी है, कौन बेकसूर है। दो-चार अपराधियों के साथ दो-चार बेकसूर भी जरूर होंगे।
दारोगा–हर्गिज नहीं। जितने आदमी पकड़े गये हैं, सब पक्के डाकू हैं।
देवी–यह तो आप कहते हैं न, हमें क्या मालूम।
दारोगा–हम लोग बेगुनाहों को फँसायेंगे ही क्यों? यह तो सोचो।
देवी–यह सब भुगते बैठा हूँ दारोगाजी। इससे तो यही अच्छा है कि आप इनका चालान कर दें। साल-दो-साल का जेहल ही तो होगा। एक अधरम के दण्ड से बचने के लिए बेगुनाहों का खून तो सिर पर न चढ़ेगा !
रमा ने भीरुता से कहा–मैंने खूब सोच लिया है दादा, सब कागज देख लिये हैं, इसमें कोई बेगुनाह नहीं है।
देवीदीन ने उदास होकर कहा–होगा भाई ! जान भी तो प्यारी होती है !
यह कहकर वह पीछे घूम पड़ा। अपने मनोभावों को इससे स्पष्ट रूप से वह प्रकट न कर सकता था।
एकाएक से एक बात याद आ गयी। मुड़कर बोला– तुम्हें कुछ रुपये देता जाऊँ।
रमा ने खिसियाकर कहा–क्या जरूरत है?
दारोगा–आज से इन्हें यहीं रहना पड़ेगा।
देवीदीन ने कर्कश स्वर में कहा–हाँ हुजूर, इतना जानता हूँ। इनकी दावत होगी, बँगला रहने को मिलेगा, नौकर मिलेंगे मोटर मिलेगी। यह सब जानता हूँ। कोई बाहर का आदमी इनसे मिलने न पावेगा। न यह अकेले कहीं आ-जा सकेंगे, यह सब देख चुका हूँ।
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