लोगों की राय

उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास)

ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

438 पाठक हैं

ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


यह कहता हुआ देवीदीन तेजी से कदम उठाता हुआ चल दिया, मानो वहाँ उसका दम घुट रहा हो। दारोगा ने उसे पुकारा, पर उसने फिरकर न देखा। उसके मुख पर पराभूत वेदना छायी हुई थी।

जग्गो ने पूछा भैया नहीं आ रहे हैं?

देवीदीन ने सड़क की ओर ताकते हुए कहा–भैया अब नहीं आवेंगे। जब अपने-ही-अपने न हुए तो बेगाने-तो-बेगाने ही हैं !

वह चला गया। बुढ़िया भी पीछे-पीछे भुनभुनाती चली।

[३५]

रुदन में कितना उल्लास, कितनी शान्ति, कितना बल है। जो कभी एकान्त में बैठकर, किसी की स्मृति में, किसी के वियोग में, सिसक-सिसक और बिलख-बिलख नहीं रोया, वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है, जिस पर सैकड़ो हँसियाँ न्योछावर हैं। उस मीठी वेदना का आनन्द उन्हीं से पूछो, जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है। हँसी के बाद मन खिन्न हो जाता है, आत्मा क्षुब्द हो जाती है, मानो हम थक गये हों, पराभूत हो गये हों। रुदन के पश्चात् एक नवीन स्फूर्ति, एक नवीन जीवन, एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है। जालपा के पास ‘प्रजा-मित्र’ कार्यालय का पत्र पहुँचा, तो उसे पढ़कर वह रो पड़ी। पत्र एक हाथ में लिये, दूसरे हाथ से चौखट पकड़े, वह खूब रोयी। क्या सोचकर रोयी यह कौन कह सकता है। कदाचित् अपने उपाय की इस आशातीत सफलता ने उसकी आत्मा को विह्वल कर दिया, आनन्द की उस गहराई पर पहुँचा दिया जहाँ पानी है, या उस ऊँचाई पर जहाँ उष्णता हिम बन जाती है। आज छः महाने के बाद वह सुख-संवाद मिला। इतने दिनों वह छलमयी आशा और कठोर दुराशा का खिलौना बनी रही। आह ! कितनी बार उसके मन में तरंग उठी कि इस जीवन का क्यों न अन्त कर दूँ ! कहीं मैंने सचमुच प्राण त्याग दिये होते तो उनके दर्शन भी न कर पाती ! पर उनका हिया कितना कठोर है। छः महीने से वहाँ बैठे हैं, एक पत्र भी नहीं लिखा, खबर तक नहीं ली। आखिर यही न समझ लिया होगा कि बहुत होगा रो-रोकर मर जायेगी। उन्होंने मेरी परवा ही कब की। दस-बीस रुपये तो आदमी यार-दोस्तों पर भी खर्च कर देता है। वह प्रेम नहीं है। प्रेम हृदय की वस्तु है, रुपये की नहीं। जब तक रमा का कुछ पता न था, जालपा सारा इलजाम अपने सिर रखती थी; पर आज उनका पता पाते ही उसका मन अकस्मात कठोर हो गया। तरह-तरह के शिकवे पैदा होने लगे। वहां क्या समझकर बैठे हैं? इसीलिए तो वह स्वाधीन हैं, आजाद हैं, किसी का दिया नहीं खाते। इसी तरह मैं कहीं बिना कहे-सुने चली जाती, तो वह मेरे साथ किस तरह पेश आते? शायद तलवार लेकर गरदन पर सवार हो जाते या जिन्दगी भर मुँह न देखते। वहीं खड़े-खड़े जालपा ने मन-ही-मन शिकायतों का दफ्तर खोल दिया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book