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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


देवीदीन उसकी मनोव्यथा का अनुभव करता हुआ बोला–कोई बात नहीं। यहाँ वह मेरे साथ ही परागराज से आये। जब से आये यहाँ से कहीं गये नहीं। बाहर निकलते ही न थे। बस एक दिन निकले और उसी दिन पुलिस ने पकड़ लिया। एक सिपाही को आते देखकर डरे कि मुझी को पकड़ने आ रहा है, भाग खड़े हुए। उस सिपाही को खटका हुआ। उसने शुबहे में गिरफ्तार कर लिया। मैं भी उनके पीछे थाने में पहुँचा। दारोगा तो पहले रूसवत माँगते थे; मगर जब मैं घर से रुपये लेकर गया, तो वहाँ और ही गुल खिल चुका था। अफसरों में न जाने क्या बातचीत हुई। उन्हें सरकारी गवाह बना लिया। मुझसे तो भैया ने यही कहा कि इस मुआमले में बिलकुल झूठ न बोलना पड़ेगा। पुलिस का मुकदमा सच्चा है। सच्ची बात कह देने में क्या हरज है। मैं चुप हो रहा। क्या करता।

जग्गो–न जाने सबों ने कौन सी बूटी सूँघा दी। भैया तो ऐसे न थे। दिन-भर अम्मा-अम्मा करते रहते थे। दुकान पर सभी तरह के लोग आते हैं। मर्द भी, औरत भी। क्या मजाल की किसी की ओर आँख उठाकर देखा हो।

देवी–कोई बुराई न थी। मैंने तो ऐसा लड़का ही नहीं देखा। उसी धोखे में आ गये। जालपा ने एक मिनट सोचने के बाद कहा–क्या उनका बयान हो गया?

‘हाँ, तीन दिन बराबर होता रहा। आज खत्म हो गया।’

जालपा ने उद्विग्न होकर कहा–तो अब कुछ नहीं हो सकता? मैं उनसे मिल सकती हूँ?

देवीदीन जालपा के इस प्रश्न पर मुस्करा पड़ा। बोला–हाँ, और क्या, जिसमें जाकर भाण्डाफोड़ कर दो, सारा खेल बिगाड़ दो ! पुलिस ऐसी गधी नहीं है। आजकल कोई भी उनसे नहीं मिलने पाता। कड़ा पहरा रहता है।

इस प्रश्न पर इस समय और कोई बात चीत न हो सकती थी। इस गुत्थी को सुलझाना आसान न था। जालपा ने गोपी को बुलाया। वह छज्जे पर खड़ा सड़क का तमाशा देख रहा था। ऐसा शरमा रहा था, मानो ससुराल आया हो। धीरे-धीरे आकर खड़ा हो गया।

जालपा ने कहा–मुँह-हाथ धोकर कुछ खा तो लो। दही तो तुम्हें बहुत अच्छा लगता है।

गोपी लजाकर फिर बाहर चला गया।

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