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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


देवीदीन ने मुस्कराकर कहा–हमारे सामने न खायेंगे। हम दोनों चले जाते हैं। तुम्हें जिस चीज की जरूरत हो, हमसे कह देना बहूजी। तुम्हारा ही घर है। भैया को तो हम अपना ही समझते थे। और हमारे कौन बैठा हुआ है।

जग्गो ने गर्व से कहा–वह ते मेरे हाथ का बनाया खा लेते थे। गरूर तो छू नहीं गया था।

जालपा ने मुस्कराकर कहा–अब तुम्हें भोजन न बनाना पड़ेगा माँ जी, मैं बना दिया करूँगी।

जग्गो ने आपत्ति की–हमारी बिरादरी में दूसरों के हाथ का खाना मना है बहू। अब चार दिन के लिए बिरादरी में नक्कू क्या बनूँ !

जालपा–हमारी बिरादरी में भी दूसरों का खाना माना है।

जग्गो–तुम्हें यहाँ कौन देखने आता है। फिर पढ़े-लिखे आदमी इन बातों का विचार भी तो नहीं करते। हमारी बिरादरी तो मूरख लोगों की है।

जालपा–यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम बनाओ और मैं खाऊँ। जिसे बहू बनाया, उसके हाथ का खाना पड़ेगा। नहीं खाना था, तो बहू क्यों बनाया।

देवीदीन ने जग्गो की ओर प्रशंसा-सूचक नेत्रों से देखकर कहा–बहू ने बात तो पते की कह दी। इसका जवाब सोचकर देना। अभी चलो। इन लोगों को ज़रा आराम करने दो।

दोनों नीचे चले गये, तो गोपी ने आकर कहा–भैया इसी खटिक के यहाँ रहते थे क्या? खटिक ही तो मालूम होते हैं।

जालपा ने फटकार कर कहा–खटिक हों या चमार हों; लेकिन हमसे और तुमसे सौ गुने अच्छे हैं। एक परदेशी आदमी को छः महीने तक अपने घर में ठहराया, खिलाया-पिलाया। हममें है इतनी हिम्मत ! यहाँ तो कोई मेहमान आ जाता है, तो वह भी भारी हो जाता है। अगर यह नीचे हैं, तो हम इनसे कहीं नीचे हैं।

गोपी हाथ-मुँह धो चुका था। मिठाई खाता हुआ बोला–किसी को ठहरा लेने से कोई ऊँचा नहीं हो जाता। चमार कितना ही दान-पुण्य करे, पर रहेगा तो चमार ही।

जालपा–मैं उस चमार को उस पण्डित से अच्छा समझूँगी, जो हमेशा दूसरों का धन खाया करता है।

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