उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जलपान करके गोपी नीचे चला गया। शहर घूमने की उसकी इच्छा थी। जालपा की इच्छा कुछ खाने को न हुई। उसके सामने एक जटिल समस्या खड़ी थी–रमा को कैसे इस दलदल से निकाले। उस निन्दा और उपहास की कल्पना ही से उसका अभिमान आहत हो उठा। हमेशा के लिए वह सबकी आँखों से गिर जायेंगे, किसी को मुँह न दिखा सकेंगे।
फिर, बेगुनाहों का खून किसकी गर्दन पर होगा। अभियुक्तों में न जाने कौन आपराधी है, कौन निरपराध है, कितने द्वेष के शिकार हैं, कितने लोभ के। सभी सजा पा जायेंगे। शायद दो-चार को फाँसी भी हो जाय। किस पर यह हत्या पड़ेगी?
उसने फिर सोचा, माना किसी पर हत्या न पड़ेगी। कौन जानता है, हत्या पड़ती है या नहीं; लेकिन अपने स्वार्थ के लिए–ओह ! कितनी बड़ी नीचता है। यह कैसे इस बात पर राजी हुए ! अगर म्युनिसिपैलिटी के मुकदमा चलाने का भय भी था, तो दो-चार साल की कैद के सिवा और क्या होता? उससे बचने के लिए इतनी घोर नीचता पर उतर आये !
अब अगर मालूम भी हो जाये कि म्युनिसिपैलिटी कुछ नहीं कर सकती, तो अब हो ही क्या सकता है। इनकी शहादत तो हो ही गयी।
सहसा एक बात किसी भारी कील की तरह उसके हृदय में चुभ गयी। क्यों न वह अपना बयान बदल दें।
यह बात उन्हें कैसे बतायी जाये? किसी तरह सम्भव है?
वह अधीर होकर नीचे उतर आयी और देवीदीन को इशारे से बुलाकर बोली–क्यों दादा, उनके पास कोई खत भी नहीं पहुँच सकता? पहरे वालों को दस-पाँच रुपये देने से तो शायद खत पहुँच जाय।
देवीदीन ने गर्दन हिलाकर कहा–मुश्किल है। पहरे पर बड़े जँचे हुए आदमी रक्खे गये हैं। मैं दो बार गया था। सबों ने फाटक के सामने खड़ा भी न होने दिया।
‘उस बँगले के आसपास क्या है?’
‘एक ओर तो दूसरा बँगला है। एक ओर एक कलमी आम का बाग है और सामने सड़क है।’
‘वह शाम को घूमने-घामने तो निकलते ही होंगे?’
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