लोगों की राय

उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास)

ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

438 पाठक हैं

ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


‘हाँ, बाहर कुरसी डालकर बैठते हैं। पुलिस के दो-एक अफसर भी साथ रहते हैं।’

‘अगर कोई उस बाग में छिप कर बैठे, तो कैसा हो ! जब उन्हें अकेले देखे, खत फेंक दे। वह जरूर उठा लेंगे।’

देवीदीन ने चकित होकर कहा–हाँ, हो सकता है; लेकिन अकेले मिलें तब तो !

ज़रा और अँधेरा हुआ, तो जालपा ने देवीदीन को साथ लिया और रमानाथ का बँगला देखने चली। एक पत्र लिखकर जेब में रख लिया था। बार-बार देवीदीन से पूछती, अब कितनी दूर है? अच्छा ! अभी इतनी ही दूर और ! वहाँ हाते में रोशनी तो होगी ही। उसके दिल में लहरें-सी उठने लगीं। रमा टहलते हुए अकेले मिल जायें, तो क्या पूछना। रूमाल में बाँधकर खत को उनके सामने फेंक दूँ। उनकी सूरत बदल गयी होगी।

सहसा उसे शंका हो गयी–कहीं वह पत्र पढ़कर भी अपना बयान न बदलें, तब क्या होगा? कौन जाने अब मेरी याद भी उन्हें है या नहीं। कहीं मुझे देखकर वह मुँह फेर लें तो? इस शंका से वह सहम उठी। देवीदीन से बोली–क्यों दादा, वह कभी घर की चर्चा करते थे?

देवीदीन ने सिर हिलाकर कहा–कभी नहीं। मुझसे तो कभी नहीं की। उदास बहुत रहते थे।

इन शब्दों ने जालपा की शंका को और भी सजीव कर दिया। शहर की घनी बस्ती से ये लोग दूर निकल आये थे। चारों ओर सन्नाटा था। दिन भर वेग से चलने के बाद इस समय पवन भी विश्राम कर रहा था। सड़क के किनारे के वृक्ष और मैदान चन्द्रमा के मन्द प्रकाश में हतोत्साह, निर्जीव-से मालूम होते थे। जालपा को ऐसा आभास होने लगा कि उसके प्रयास का कोई फल नहीं है, उसकी यात्रा का कोई लक्ष्य नहीं है, इस अनन्त मार्ग में उसकी दशा उस अनाथ की-सी है जो मुट्ठा भर अन्न के लिए द्वार-द्वार फिरता हो। वह जानता है, अगले द्वार पर उसे अन्न न मिलेगा, गालियाँ ही मिलेंगी, फिर भी वह हाथ फैलाता है, बढ़ती मनाता है। उसे आशा का अवलम्ब नहीं, निराशा ही का अवलम्ब है।

एकाएक सड़क के दाहिनी तरफ़ बिजली का प्रकाश दिखायी दिया।

देवीदीन ने एक बँगले की ओर उँगली उठाकर कहा–यही उनका बँगला है।

जालपा ने डरते-डरते उधर देखा; मगर बिल्कुल सन्नाटा छाया हुआ था। कोई आदमी न था। फाटक पर ताला पड़ा हुआ था।

जालपा बोली–यहाँ तो कोई नहीं है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book