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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


देवीदीन ने फाटक के अन्दर झाँककर कहा–हाँ, शायद यह बँगला छोड़ दिया।

‘कहीं घूमने गये होंगे?’

‘घूमने जाते, तो द्वार पर पहरा होता। यह बँगला छोड़ दिया।’

‘तो लौट चलें।’

‘नहीं, जरा पता तो लगाना चाहिए, गये कहाँ।’

बँगले की दाहिनी तरफ़ आमों के बाग़ में प्रकाश दिखायी दिया। शायद खटिक बाग की रखवाली कर रहा था। देवीदीन ने बाग में आकर पुकारा–कौन है यहाँ? किसने यह बाग लिया है?

एक आदमी आमों के झुरमुट से निकल आया। देवीदीन ने उसे पहचान कर कहा–अरे ! तुम हो जंगली? तुमने यह बाग लिया है?

जंगली ठिगना-सा गठीला आदमी था, बोला–हाँ दादा, ले लिया; पर कुछ है नहीं। डण्ड ही भरना पड़ेगा तुम यहाँ कैसे आ गये?

‘कुछ नहीं, यों ही चला आया था। इस बँगले वाले आदमी क्या हुए?’
 
जंगली ने इधर-उधर देखकर कनबतियों में कहा–इसमें वही मुखबर टिका हुआ था। आज सब चले गये। सुनते हैं, पन्द्रह बीस दिन में आयेंगे, जब फिर हाई कोर्ट में मुकदमा पेस होगा। पढ़े-लिखे आदमी भी ऐसे दगाबाज होते हैं दादा ! सरासर झूठ गवाही दी। न जाने इसके बाल-बच्चे हैं या नहीं, भगवान को भी नहीं डरा !

जालपा वहीं खड़ी थी। देवीदीन ने जंगली को और जहर उगलने का मौका न दिया। बोला–तो पन्द्रह-बीस दिन में आयेंगे, खूब मालूम है?

जंगली–हाँ, वही पहरे वाले कह रहे थे।

‘कुछ मालूम हुआ कहाँ गये हैं?’

‘वही मौका देखने गये हैं जहाँ वारदात हुई थी।’

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