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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


बालिका जब ज़रा और बड़ी हुई, तो गुड़ियों के ब्याह करने लगी। लड़के की ओर से चढ़ावे जाते, दुलहिन को गहने पहनाती, डोली में बैठाकर बिदा करती, कभी-कभी दुलहिन गुड़िया अपने गुड्डे दूल्हे से गहनों के लिए मान करती, गुड्डा बेचारा कहीं न कहीं से गहने लाकर स्त्री को प्रसन्न करता था। उन्हीं दिनों बिसाती ने उसे वह चन्द्रहार दिया, जो अब तक उसके पास सुरक्षित था।

ज़रा और बड़ी हुई तो बड़ी-बूढ़ियों में बैठकर गहनों की बातें सुनने लगी। महिलाओं के उस छोटे से संसार में इसके सिवा और कोई चर्चा ही न थी। किसने कौन-कौन गहने बनवाये, कितने दाम लगे, ठोस हैं या पोले जड़ाऊ है या सादे, किस लकड़ी के विवाह में कितने गहने आये–इन्हीं महत्त्वपूर्ण विषयों पर नित्य आलोचना-प्रत्यालोचना टीका-टिप्पणी होती रहती थी। कोई दूसरा विषय इतना रोचक इतना ग्राह्य हो ही न सकता था।

इस आभूषण-मंडित संसार में पली हुई जालपा का यह आभूषण-प्रेम स्वाभाविक ही था। महीने भर से ऊपर हो गया। उसकी दशा ज्यों-की-त्यों है। न कुछ खाती-पीती है न किसी से हँसती-बोलती है। खाट पर पड़ी हुई शून्य नेत्रों से शून्याकाश की ओर ताकती रहती है। सारा घर समझाकर हार गया, पड़ोसिनें समझाकर हार गयीं, दीनदयाल आकर समझ गये, पर जालपा ने रोग-शय्या न छोड़ी। उसे अब घर में किसी पर विश्वास नहीं है, यहाँ तक कि रमा से भी उदासीन रहती है। वह समझती है सारा घर मेरी उपेक्षा कर रहा है। सब के सब मेरे प्राण के ग्राहक हो रहे हैं। जब इनके पास इतना धन है, तो फिर मेरे गहने क्यों नहीं बनवाते? जिससे हम सबसे अधिक स्नेह रखते हैं, उसी पर सबसे अधिक रोष भी करते हैं। जालपा को सबसे अधिक क्रोध रमानाथ पर था। अगर यह अपने माता-पिता से जोर देकर कहते, तो कोई इनकी बात न टाल सकता; पर यह कुछ कहें भी? इनके मुँह में तो दही जमा हुआ है। मुझसे प्रेम होता, तो यों निश्चिन्त न बैठे रहते। जब तक सारी चीजें न बनवा लेते, रात को नींद न आती। मुँह देखे की मुहब्बत है, माँ-बाप कैसे कहें, जायेंगे तो अपनी ही ओर मैं कौन हूँ !

वह रमा से केवल खिंची ही नहीं रहती थी, वह कभी कुछ पूछता तो दो-चार जली-कटी सुना देती। बेचारा अपना सा मुँह लेकर रह जाता। गरीब अपने ही लगायी हुई आग में जला जाता था। अगर वह जनता की उन डींगों का यह फल होगा तो वह ज़बान पर मुहर लगा लेता। चिन्ता और ग्लानि उसके हृदय को कुचले डालती थी। कहाँ सुबह से शाम तक हँसी-कहकहे, सैर-सपाटे में कटते थे, कहाँ अब नौकरी की तलाश में ठोकरें खाता फिरता था। सारी मस्ती गायब हो गयी। बार-बार अपने पिता पर क्रोध आता, यह चाहते तो दो-चार महीने में सब रुपये अदा हो जाते, मगर इन्हें क्या फिक्र। मैं चाहे मर जाऊं, पर यह अपनी टेक न छोड़ेंगे। उसके प्रेम से भरे हुए, निष्कपट हृदय में आग-सी सुलगती रहती थी। जालपा का मुरझाया हुआ मुख देखकर उसके मुँह से ठंडी साँस निकल जाती थी। वह सुखद प्रेम-स्वप्न इतनी जल्द भंग हो गया, क्या वे दिन फिर कभी आयेंगे? तीन हज़ार के गहने कैसे बनेंगे? अगर नौकर भी हुआ, तो ऐसा कौन-सा बड़ा ओहदा मिल जायेगा? तीन हजार तो शायद तीन जन्म में भी जमा न हों ! वह कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहता था, जिससे वह जल्द-से-जल्द अतुल संपत्ति का स्वामी हो जाय। कहीं उसके नाम कोई लाटरी निकल आती ! फिर तो जालपा को आभूषणों से मढ़ देता। सबसे पहले चन्द्रहार बनवाता। उनमें हीरे जड़े होते। अगर इस वक्त जाली नोट बनाना आ जाता, तो वह अवश्य बनाकर चला देता।

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