उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा ने रूठे हुए बालक की तरह हाथ छुड़ाकर कहा–मुझे दिक न कीजिए इंस्पेक्टर साहब। अब तो मुझे जेलखाने में मरना है।
इंस्पेक्टर ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा–आप क्यों ऐसी बातें मुँह से निकालते हैं साहब। जेलखाने में मरें आपके दुश्मन।
डिप्टी ने तसमा भी बाक़ी न छोड़ना चाहा। बड़े कठोर स्वर में बोला, मानो रमा से कभी का परिचय नहीं है–साहब, यों हम बाबू साहब के साथ सब तरह का सलूक करने को तैयार हैं; लेकिन जब वह हमारे खिलाफ गवाही देगा हमारा जड़ खोदेगा, तो हम भी अपनी कार्रवाई करेगा। ज़रूर से करेगा। कभी छोड़ नहीं सकता।
इसी वक्त सरकारी एडवोकेट और बेरिस्टर मोटर से उतरे।
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रतन पत्रों से जालपा को तो ढाँढ़स देती रहती थी, पर अपने विषय में कुछ न लिखती थी। जो आप ही व्यथित हो रहा हो, उसे अपनी व्यथाओं की कथा क्या सुनाती। वहीं रतन जिसने रुपयों की कभी कोई हकीकत न समझी, इस एक महीने में रोटियों को भी मुहताज हो गयी थी। उसका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी न हो; पर उसे किसी बात का अभाव न था। मरियल घोड़े पर सवार होकर भी यात्रा पूरी हो सकती है, अगर सड़क अच्छी हो, नौकर, चाकर, रुपये-पैसे और भोजन आदि की सामग्री साथ हो। घोड़े भी तेज हो, तो पूछना ही क्या। रतन की दशा उसी सवार की-सी थी। उसी सवार की भाँति वह मन्दगति से अपनी जीवन यात्रा कर रही थी। कभी-कभी वह घोड़े पर झुँझलाती होगी, दूसरे सवारों को उड़े जाते देखकर उसकी भी इच्छा होती होगी कि मैं भी इसी तरह उड़ती, लेकिन वह दुःखी न थी, अपने नसीबों को रोती न थी। वह उस गाय की तरह थी, जो एक पतली-सी पगहिया के बंधन में पड़कर, अपनी नाँद के भूसे-खली में मग्न रहती है। सामने हरे-हरे मैदान हैं, उसमें सुगन्धमय घासें लहरा रही हैं; पर वह पगहिया तुड़ाकर कभी उधर नहीं जाती। उसके लिए उस पगहिया और लोहे की जंजीर में कोई अन्तर नहीं। यौवन को प्रेम की इतनी क्षुधा नहीं होती, जितनी आत्मप्रदर्शन की। प्रेम की क्षुधा पीछे आती है। रतन को आत्मप्रदर्शन के सभी साधन मिले हुए थे। उसकी युवती आत्मा अपने श्रृंगार और प्रदर्शन में मग्न थी। हँसी-विनोद, सैर-सपाटा, खाना-पीना, यही उसका जीवन था, जैसा प्रायः सभी मनुष्यों का होता है। इससे गहरे जल में जाने की न उसे इच्छा थी, न प्रयोजन। सम्पन्नता बहुत कुछ मानसिक व्यथाओं को शान्त करती है। उसके पास अपने दुःखों को भुलाने के कितने ही ढंग हैं–सिनेमा है, थिएटर है, देश-भ्रमण है, ताश है, पालतू जानवर है, संगीत है; लेकिन विपन्नता को भुलाने का मनुष्य के पास कोई साधन नहीं है, इसके सिवा कि वह रोये, अपने भाग्य को कोसे या संसार से विरक्त होकर आत्महत्या कर ले। रतन की तक़दीर ने पलटा खाया था। सुख का स्वप्न भंग हो गया था और विपन्नता का कंकाल अब उसे खड़ा घूर रहा था।
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