उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
और यह सब हुआ अपने ही हाथों ! पंडितजी उन प्राणियों में थे, जिन्हें मौत की फ़िक्र नहीं होती। उन्हें किसी तरह यह भ्रम हो गया था कि दुर्बल स्वास्थ के मनुष्य अगर पथ्य और विचार से रहें, तो बहुत दिनों तक जी सकते हैं। वह पथ्य और विचार की सीमा के बाहर कभी न जाते। फिर मौत को उनसे क्या दुश्मनी थी, जो ख्वाहमख्वाह उनके पीछे पड़ती। अपनी वसीयत लिख डालने का ख़्याल उन्हें उस वक्त आया, जब वह मरणासन्न हुए; लेकिन रतन वसीयत का नाम सुनते ही इतनी शोकातुर, इतनी भयभीत हुई, कि पण्डितजी ने उस वक्त टाल जाना ही उचित समझा। तब से फिर उन्हें इतना होश न आया कि वसीयत लिखवाते।
पण्डितजी के देहावसान के बाद रतन का मन इतना विरक्त हो गया कि उसे किसी बात की भी सुध-बुध न रही। यह वह अवसर था, जब उसे विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए था। इस भाँति सतर्क रहना चाहिए था, मानो दुश्मनों ने उसे घेर रक्खा हो; पर उसने सबकुछ मणिभूषण पर छोड़ दिया और उसी मणिभूषण ने धीरे-धीरे उसकी सारी सम्पत्ति अपहरण कर ली। ऐसे-ऐसे षड्यन्त्र रचे सरला रतन को उसके कपट व्यवहार का आभास तक न हुआ। फन्दा जब खूब कस गया, तो उसने एक दिन आकर कहा–आज बँगला खाली करना होगा। मैंने इसे बेच दिया है।
रतन ने ज़रा तेज होकर कहा–मैंने तो तुमसे कहा था कि मैं अभी बँगला न बेचूँगी।
मणिभूषण ने विनय का आवरण उतार फेंका और त्योरी चढ़ाकर बोला–आप में बातें भूल जाने की बुरी आदत है। इसी कमरे में मैंने आपसे यह जिक्र किया था और आपने हामी भरी थी। जब मैंने बेच दिया, तो आप यह स्वाँग खड़ा करती हैं ! बँगला आज खाली करना होगा और आपको मेरे साथ चलना होगा।
‘मैं अभी यहीं रहना चाहती हूँ।’
‘मैं आप को यहाँ न रहने दूँगा।’
‘मैं तुम्हारी लौंडी नहीं हूँ।’
‘आपकी रक्षा का भार मेरे ऊपर है। अपने कुल की मर्याद-रक्षा के लिए मैं आपको अपने साथ ले जाऊँगा।’
रतन ने होंठ चबाकर कहा–मैं अपनी मर्यादा की रक्षा आप कर सकती हूँ। तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं। मेरी मर्जी के बगै़र तुम यहाँ कोई चीज नहीं बेच सकते।
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