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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


इतने दिनों वह अपने को इस घर की स्वामिनी समझती रही। कितनी बड़ी भूल थी। पति के जीवन में जो लोग उसका मुँह ताकते थे, वे आज उसके भाग्य के विधाता हो गये ! यह घोर अपमान रतन जैसी माननी स्त्री के लिए असह्य था। माना, कमाई पंडितजी की थी, पर यह गाँव तो उसी ने खरीदा था, इनमें से कई मकान तो उसके सामने ही बने। उसने यह एक क्षण के लिए भी न खयाल किया था कि एक दिन यह जायदाद मेरी जीविका का आधार होगी। इतनी भविष्य-चिन्ता वह कर ही न सकती थी। उसे इस जायदाद के खरीदने में, उसके सँवारने और सजाने में वही आनन्द आता था, जो माता अपनी सन्तान को फलते-फूलते देखकर पाती है। उसमें स्वार्थ का भाव न था, केवल अपनेपन का गर्व था, वही ममता थी; पर पति की आँखें बन्द होते ही उसके पाले और गोद के खेलाये बालक भी उसकी गोद से छीन लिये गये। उसका उन पर कोई अधिकार नहीं ! अगर वह जानती कि एक दिन यह कठिन समस्या उसके सामने आयेगी, तो वह चाहे रुपये लुटा देती या दान कर देती; पर सम्पत्ति की कील अपनी छाती पर न गाड़ती। पंडितजी की ऐसी कौन बहुत बड़ी आमदनी थी। क्या गर्मियों में वह शिमले न जा सकती थी? क्या दो-चार और नौकर न रक्खे जा सकते थे? अगर वह गहने ही बनवाती, तो एक-एक मकान के मूल्य का एक-एक गहना बनवा सकती थी; पर उसने इन बातों को कभी उचित सीमा से आगे न बढ़ने दिया। केवल यही स्वप्न देखने के लिए ! यही स्वप्न ! इसके सिवा और था ही क्या। जो कल उसका था उसकी ओर आज आँखें उठाकर वह देख भी नहीं सकती ! कितना मँहगा था वह स्वप्न ! हाँ, वह अब अनाथिनी थी। कल तक दूसरों को भीख देती थी, आज उसे खुद भीख माँगनी पड़ेगी। और कोई आश्रय नहीं ! पहले भी वह अनाथिनी थी, केवल भ्रम-वश अपने को स्वामिनी समझ रही थी। अब उस भ्रम का सहारा भी नहीं रहा !

सहसा उसके विचारों ने पलटा खाया। मैं क्यों अपने को अनाथिनी समझ रही हूँ? क्यों दूसरों के द्वार पर भीख माँगूँ? संसार में लाखों ही स्त्रियाँ मेहनत-मजदूरी करके जीवन का निर्वाह करती हैं। क्या मैं कोई काम नहीं कर सकती? मैं कपड़ा क्या नहीं सी सकती? किसी चीज की छोटी-मोटी दूकान नहीं रख सकती? लड़के भी पढ़ा सकती हूँ। यही न होगा, लोग हँसेंगे; मगर मुझे उस हँसी की क्या परवाह ! वह मेरी हँसी नहीं है, अपने समाज की हँसी है।

शाम को द्वार पर कई ठेले वाले आ गये। मणिभूषण ने आकर कहा–चाचीजी, आप जो जो चीजें कहें, लदवाकर भेजवा दूँ। मैंने एक मकान ठीक कर लिया है।

रतन ने कहा–मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं। न तुम मेरे लिए मकान लो। जिस चीज पर मेरा कोई अधिकार नहीं, वह मैं हाथ से भी न छू सकती। मैं अपने घर से कुछ लेकर नहीं आयी थी। उसी तरह लौट जाऊँगी।

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