उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
संध्या हो गयी थी। गर्द से भरी हुई फागुन की वायु चलने वालों की आँखों में धूल झोंक रही थी। रतन चादर सँभालती सड़क पर चली जा रही थी। रास्ते में कई परिचित स्त्रियों ने उसे टोका, कई ने अपनी मोटर रोक ली और उसे बैठने को कहा; पर रतन को उनकी सहायता इस समय बाण-सी लग रही थी। वह तेजी से कदम उठाती हुई जालपा के घर चली जा रही थी। आज उसका वास्तविक जीवन आरम्भ हो हुआ था।
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ठीक दस बजे जालपा और देवीदीन कचहरी पहुँच गये। दर्शकों की काफी भीड़ थी। ऊपर की गैलरी दर्शकों से भरी हुई थी। कितने ही आदमी बरामदों में और सामने के मैदान में खड़े थे। जालपा ऊपर गैलरी में जा बैठी। देवीदीन बरामदे में जाकर खड़ा हो गया।
इजलास पर जज साहब के एक तरफ अहलमद था और दूसरी तरफ पुलिस के कई कर्मचारी खड़े थे। सामने कठघरे के बाहर दोनों तरफ़ के वकील खड़े मुकदमा पेश होने का इन्तजार कर रहे थे। मुलजिमों की संख्या पन्द्रह से कम न थी। सब कठघरे के बग़ल में ज़मीन पर बैठे हुए थे। सभी के हाथों में हथकड़ियाँ थीं, पैरों में बेड़ियाँ। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई आपस में बातें कर रहा था। दो पंजे लड़ा रहे थे। दो में किसी विषय पर बहस हो रही थी। सभी प्रसन्नचित्त थे। घबराहट, निराशा या शोक का किसी के चेहरे पर चिह्न भी न था।
ग्यारह बजते-बजते अभियोग की पेशी हुई। पहले जाब्ते की कुछ बातें हुईं, फिर दो-एक पुलिस की शहादतें हुईं। अन्त में कोई तीन बजे रमानाथ गवाहों के कठघरे में लाया गया। दर्शकों में सनसनी-सी फैल गयी। कोई तम्बोली की दूकान से पान खाता हुआ भागा, किसी ने समाचार पत्र को मरोड़कर जेब में रक्खा और सब इलजास के कमरे में जमा हो गये।
जालपा भी सँभलकर बारजे में खड़ी हो गयी। वह चाहती थी कि एक बार रमा की आँखें उठ जातीं और वह उसे देख लेती; लेकिन रमा सिर झुकाये खड़ा था, मानो वह इधर-उधर देखते डर रहा हो। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। कुछ सहमा हुआ, कुछ घबराया हुआ इस तरह खड़ा था, मानो उसे किसी ने बाँध रक्खा है और भागने की कोई राह नहीं है। जालपा का कलेजा धक-धक कर रहा था, मानो उसके भाग्य का निर्णय हो रहा हो।
रमा का बयान शुरू हुआ। पहला ही वाक्य सुनकर जालपा सिहर उठी, दूसरे वाक्य ने उसकी त्योरियों पर बल डाल दिये, तीसरे वाक्य ने उसके चेहरे का रंग फ़क कर दिया और चौथा वाक्य सुनते ही वह एक लम्बी साँस खींचकर पीछे रक्खी हुई कुर्सी पर टिक गयी; मगर फिर दिल न माना। जँगले पर झुककर फिर उधर कान लगा दिये। वही पुलिस की सिखायी हुई शहादत थी जिसका आशय वह देवीदीन के मुँह से सुन चुकी थी। अदालत में सन्नाटा छाया हुआ था। जालपा ने कई बार खाँसा कि शायद अब भी रमा की आँखें ऊपर उठ जायँ; लेकिन रमा का सिर और भी झुक गया। मालूम नहीं, उसने जालपा के खाँसने की आवाज पहचान ली या आत्मग्लानि का भाव उदय हो गया। उसका स्वर भी कुछ धीमा हो गया।
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