उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जालपा अब वहाँ न ठहर सकी। एक-एक बात चिनगारी की तरह उसके दिल पर फ़फोले डाले देती थी। ऐसा जी चाहता था कि इसी वक्त उठकर कह दे, यह महाशय बिल्कुल झूठ बोल रहे हैं, सरासर झूठ, और इसी वक्त इसका सबूत दे दे। वह इस आवेग को पूरे बल से दबाये हुए थी। उसका मन अपनी कायरता पर उसे धिक्कार रहा था। क्यों वह इसी वक्त सारा वृत्तान्त नहीं कह सुनाती। पुलिस उसकी दुश्मन हो जायेगी, हो जाय। कुछ तो अदालत को ख़याल होगा। कौन जाने, इन गरीबों की जान बच जाय ! जनता को तो मालूम हो जायेगा कि यह झूठी शहादत है। उसके मुँह से एक बार आवाज निकलते-निकलते रह गयी। परिणाम के भय ने उसकी जबान पकड़ ली।
आखि़र उसने वहाँ से उठकर चले आने ही में कुशल समझी।
देवीदीन उसे उतरते देखकर बरामदे में चला आया और दया से सने हुए स्वर में बोला–क्या घर चलती हो बहूजी?
जालपा ने आँसुओं के वेग को रोककर कहा–हाँ, यहाँ अब नहीं बैठा जाता।
हाते के बाहर निकलकर देवादीन ने जालपा को सान्त्वना देने के इरादे से कहा–पुलिस ने जिसे एक बार बूटी सुँघा दी, उस पर किसी दूसरी चीज का असर नहीं हो सकता।
जालपा ने घृणा-भाव से कहा–यह सब कायरों के लिए है।
कुछ दूर दोनों चुपचाप चलते रहे। सहसा जालपा ने कहा–क्यों दादा, अब और तो कहीं अपील न होगी? कैदियों का यहीं फैसला हो जायेगा।
देवीदीन इस प्रश्न का आशय समझ गया। बोला–नहीं, हाई कोर्ट में अपील हो सकती है।
फिर कुछ दूर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। जालपा एक वृक्ष की छाँह में खड़ी हो गयी और बोली–दादा, मेरा जी चाहता है, आज जज साहब से मिलकर सारा हाल कह दूँ। शुरू से जो कुछ हुआ, सब कह सुनाऊँ। मैं सबूत दे दूँगी, तब तो मानेंगे?
देवीदीन ने आँखें फाड़कर कहा–जज साहब से !
जालपा ने उसकी आँखों-से-आँखें मिलाकर कहा–हाँ !
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