उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
शाम हो गयी; पर देवीदीन न आया। जालपा बार-बार खिड़की पर खड़ी हो-होकर इधर-उधर देखती थी; पर देवीदीन का पता न था। धीरे-धीरे आठ बज गये और देवीदीन न लौटा। सहसा एक मोटर द्वार पर आकर रुकी और रमा ने उतर कर जग्गो से पूछा–सब कुशल-मंगल है दादी ! दादा कहाँ गये हैं?
जग्गो ने एक बार उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया। केवल इतना बोली–कहीं गये होंगे; मैं नहीं जानती।
रमा ने सोने की चार चूड़ियाँ जेब से निकालकर जग्गो के पैरों पर रख दीं और बोला–यह तुम्हारे लिए लाया हूँ दादी, पहनो, ढीली तो नहीं हैं?
जग्गो ने चूड़ियाँ उठाकर जमीन पर पटक दीं और आँखें निकालकर बोली–जहाँ इतना पाप समा सकता है, वहाँ चार चूड़ियों की जगह नहीं है ! भगवान् की दया से बहुत चूड़ियाँ पहन चुकी और अब भी सेर-दो-सेर सोना पड़ा होगा; लेकिन जो खाया, पहना, अपनी मेहनत की कमाई से, किसी का गला नहीं दबाया, पाप की गठरी सिर पर नहीं लादी, नीयत नहीं बिगाड़ी। उस कोख में आग लगे जिसने तुम जैसे कपूत को जन्म दिया। यह पाप की कमाई लेकर तुम बहू को देने आये होगे ! समझते होगे, तुम्हारे रुपयों की थैली देखकर वह लट्टू हो जायेगी। इतने दिन उसके साथ रहकर भी तुम्हारी लोभी आँखें उसे न पहचान सकीं। तुम जैसे राक्षस उस देवी के जोग न थे। अगर अपनी कुशल चाहते हो, तो इन्हीं पैरों जहाँ से आये हो वहीं लौट जाओ, उसके सामने जाकर क्यों अपना पानी उतरवाओगे। तुम आज पुलिस के हाथों जख्मी होकर, मार खाकर आये होते, तुम्हें सजा हो गयी होती, तुम जेहल में डाल दिये गये होते, तो बहू तुम्हारी पूजा करती, तुम्हारे चरन धो-धोकर पीती। वह उन औरतों में है जो चाहे मजूरी करें, उपास करें, फटे-चीथड़े पहनें; पर किसी की बुराई नहीं देख सकती। अगर तुम मेरे लड़के होते, तो तुम्हें जहर दे देती। क्यों खड़े मुझे जला रहे हो। चले क्यों नहीं जाते। मैंने तुमसे कुछ ले तो नहीं लिया है?
रमा सिर झुकाये चुपचाप सुनता रहा। तब आहत स्वर में बोला–दादी, मैंने बुराई की है और इसके लिए मरते दम तक लज्जित रहूँगा; लेकिन तुम मुझे जितना नीच समझ रही हो, उतना नीच नहीं हूँ। अगर तुम्हें मालूम होता कि पुलिस ने मेरे साथ कैसी-कैसी सख्तियाँ कीं, मुझे कैसी-कैसी धमकियाँ दीं, तो तुम मुझे राक्षस न कहतीं।
जालपा के कानों में इन आवाजों की भनक पड़ी। उसने जीने से झाँककर देखा। रमानाथ खड़ा था। सिर पर बनारसी रेशमा साफा था, रेशम का बढ़िया कोट, आँखों पर सुनहली ऐनक। इस एक ही महीने में उसकी देह निखर आयी थी, रंग भी कुछ अधिक गोरा हो गया था। ऐसी कांति उसके चेहरे पर कभी न दिखायी दी थी। उसके अन्तिम शब्द जालपा के कानों में पड़ गये, बाज की तरह टूट कर धम-धम करती हुई नीचे आयी और जहर में बुझे हुए नेत्रबाड़ों का उस पर प्रहार करते हुए बोली–अगर तुम सख्तियों से और धमकियों से इतना दब सकते हो, तो तुम कायर हो। तुम्हें अपने को मनुष्य कहने का कोई अधिकार नहीं। क्या सख्तियाँ की थीं। ज़रा सुनूँ ! लोगों ने तो हँसते-हँसते सिर कटा लिये हैं, अपने बेटों को मरते देखा है, कोल्हू में पेरे जाना मंजूर किया है, पर सच्चाई से जौ भर भी नहीं हटे। तुम भी तो आदमी हो, तुम क्यों धमकी में आ गये? क्यों नहीं छाती खोलकर खड़े हो गये कि इसे गोली का निशाना बना लो, पर मैं झूठ न बोलूँगा। क्यों नहीं सिर झुका दिया? देह के भीतर इसीलिए आत्मा रक्खी गयी है कि देह उसकी रक्षा करे। इसलिए नहीं कि उसका सर्वनाश कर दे। इस पाप का क्या पुरस्कार मिला? जरा मालूम तो हो !
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