उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा ने दबी हुई आवाज से कहा–अभी तो कुछ नहीं।
जालपा ने सर्पिणी की भाँति फुँकारकर कहा–यह सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई ! ईश्वर करे, तुम्हें मुँह में कालिख लगाकर भी कुछ न मिले ! मेरी यह सच्चे दिल से प्रार्थना है; लेकिन नहीं, तुम जैसे मोम के पुतलों को पुलिसवाले कभी नाराज न करेंगे। तुम्हें कोई जगह मिलेगी और शायद अच्छी जगह मिले; मगर जिस जाल में तुम फँसे हो, उसमें से निकल नहीं सकते। झूठी गवाही, झूठे मुकदमें बनाना और पाप का व्यापार करना ही तुम्हारे भाग्य में लिख गया है। जाओ शौक से जिन्दगी के सुख लूटो। मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था और आज फिर कहती हूँ कि मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है। मैंने समझ लिया कि तुम मर गये। तुम भी समझ लो कि मैं मर गयी। बस, जाओ। मैं औरत हूँ। अगर कोई धमकाकर मुझसे पाप करना चाहे, तो चाहे उसे न मार सकूँ; पर अपनी गर्दन पर छूरी चला दूँगी। क्या तुममें औरतों के बराबर भी हिम्मत नहीं है?
रमा ने भिक्षुओं की भाँति गिड़गिड़ाकर कहा–तुम मेरा कोई उज्र न सुनोगी?
जालपा ने अभिमान से कहा–नहीं !
‘तो मैं मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँ?’
‘तुम्हारी खुशी !’
‘तुम मुझे क्षमा न करोगी?’
‘कभी नहीं, किसी तरह नहीं !’
रमा एक क्षण सिर झुकाये खड़ा रहा, तब धीरे-धीरे बरामदे के नीचे जाकर जग्गो से बोला–दादी, दादा आयें तो कह देना, मुझसे जरा देर मिल लें। जहाँ कहें, आ जाऊँ?
जग्गो ने कुछ पिघलकर कहा–कल यहीं चले आना।
रमा ने मोटर पर बैठते हुए कहा–यहाँ अब न आऊँगा दादी !
मोटर चली गयी, तो जालपा ने कुत्सित भाव से कहा–मोटर दिखाने आये थे, जैसे खरीद ही तो लाये हों।
जग्गो ने भर्त्सना की–तुम्हें इतना बेलगाम न होना चाहिए था बहू, दिल पर चोट लगती है, तो आदमी को कुछ नहीं सूझता।
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