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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा ने निष्ठुरता से कहा–ऐसे हयादार नहीं हैं दादी ! इसी सुख के लिए तो आत्मा बेची। उनसे यह सुख भला क्या छोड़ा जायेगा। पूछा नहीं, दादा से मिलकर क्या करोगे? वह होते तो ऐसी फटकार सुनाते कि छठी का दूध याद आ जाता।
 
जग्गो ने तिरस्कार के भाव से कहा–तुम्हारी जगह मैं होती बहू, तो मेरे मुँह से ऐसी बातें न निकलतीं। तुम्हारा हिया बड़ा कठोर है। दूसरा मर्द होता तो इस तरह चुपका-चुपका सुनता? मैं तो थर-थर काँप रही थी कि कहीं तुम्हारे ऊपर हाथ न चला दें; मगर है बड़ा गमखोर।

जालपा ने उसी निष्ठुरता से कहा–इसे गमखोरी नहीं कहते दादी, यह बेहयाई है।

देवीदीन ने आकर कहा–क्या यहाँ भैया आये थे? मुझे मोटर पर रास्ते में दिखायी दिये थे।
 
जग्गो ने कहा–हाँ, आये तो थे। कह गये हैं, दादा जरा मुझसे मिल लें।

देवीदीन ने उदासीन होकर कहा–मिल लूँगा। यहाँ कोई बातचीत हुई?

जग्गो ने पछताते हुए कहा–बातचीत क्या हुई, पहले मैंने पूजा की, मैं चुप हुई तो बहू ने अच्छी तरह फूल-माला चढ़ायी।

जालपा ने सिर नीचा करके कहा–आदमी जैसा करेगा वैसा भोगेगा।

जग्गो–अपना ही तो समझकर मिलने आये थे।

जालपा–कोई बुलाने तो न गया था। कुछ दिनेश का पता लगा दादा !

देवी–हाँ, सब पूछ आया। हाबड़े में घर है। पता-ठिकाना सब मालूम हो गया।

जालपा ने डरते-डरते कहा–इस वक्त चलोगे या कल किसी वक्त?

देवी–तुम्हारी जैसी मर्जी। जी चाहे इसी बखत चलो, मैं तैयार हूँ।

जालपा–थक गये होगे?

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