उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जालपा की वह क्रोधोन्मत्त मूर्ति उसकी आँखों के सामने फिर गयी। ओह, कितने गुस्से में थी ! मैं जानता कि वह इतना बिगड़ेगी, तो चाहे दुनिया इधर-से-उधर हो जाती, अपना बयान बदल देता। बड़ा चकमा दिया इन पुलिसवालों ने। अगर कहीं जज ने कुछ नहीं सुना और मुल्जिमों को बरी न किया, तो जालपा मेरा मुँह न देखेगी। मैं उस के पास कौन मुँह लेकर जाऊँगा। फिर जिन्दा रहकर ही क्या करूँगा। किसके लिए?
उसने मोटर रोकी और इधर-उधर देखने लगा। कुछ समझ में न आया, कहाँ आ गया। सहसा एक चौकीदार नजर आया। उसने उससे जज साहब के बँगले का पता पूछा। चौकीदार हँसकर बोला–हुजूर तो बहुत दूर निकल आये। यहाँ से छः सात मील से कम न होगा, वह उधर चौरंगी की ओर रहते हैं।
रमा चौरंगी का रास्ता पूछकर फिर चला। नौ बज गये थे। उसने सोचा, जज साहब से मुलाकात न हुई, तो सारा खेल बिगड़ जायेगा। बिना मिले हटूँगा ही नहीं। अगर उन्होंने सुन लिया तो ठीक ही है, नहीं कल हाई कोर्ट के जजों से कहूँगा। कोई तो सुनेगा। सारा वृत्तान्त समाचार पत्रों में छपवा दूँगा, तब तो सबकी आँखें ख़ुलेंगी।
मोटर तीस मील की चाल से चल रही थी। दस मिनट ही में चौरंगी आ पहुँची। यहाँ अभी तक वही चहल-पहल थी; मगर रमा उसी झन्नाटे से मोटर लिये जाता था। सहसा एक पुलिसमैन ने लाल बत्ती दिखायी। वह रुक गया और बाहर निकलकर देखा, तो वही दारोग़ाजी !
दारोगा ने पूछा–क्या अभी तक बँगले पर नहीं गये? इतनी तेज मोटर न चलाया कीजिए। कोई वारदात हो जायेगी। कहिए, बेगम साहब से मुलाकात हुई? मैंने तो समझा था, वह भी आपके साथ होंगी। खुश तो खूब हुई होंगी !
रमा को ऐसा क्रोध आया कि इसकी मूछें उखाड़ लूँ, पर बात बनाकर बोला–जी हाँ, बहुत खुश हुईं। बेहद !
‘‘मैंने कहा था न, औरतों की नाराज़ी की वही दवा है। आप काँपे जाते थे !’
‘मेरी हिमाकत थी।’
‘चलिए मैं आपके साथ चलता हूँ। एक बाजी ताश उड़े और जरा सरूर जमे। डिप्टी साहब और इंस्पेक्टर साहब आयेंगे। ज़ोहरा को बुलवा लेंगे। दो घड़ी की बहार रहेगी। अब आप मिसेज रमानाथ को बँगले ही पर क्यों नहीं बुला लेते। वहाँ उस खटिक के घर पड़ी हुई हैं।’
रमा ने कहा–अभी तो मुझे एक ज़रूरत से दूसरी तरफ जाना है। आप मोटर ले जायें मैं पाँव-पाँव चला आऊँगा।
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