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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


दारोगा ने मोटर के अन्दर जाकर कहा–नहीं साहब, मुझे कोई जल्दी नहीं है। आप जहाँ चलना चाहें, चलिए। मैं जरा भी मुखिल न हूँगा।

रमा ने कुछ चिढ़कर कहा–लेकिन मैं अभी बँगले पर नहीं जा रहा हूँ।

दारोगा ने मुस्कुराकर कहा–मैं समझ रहा हूँ, लेकिन मैं ज़रा भी मुखिल न हूँगा। वही बेगम साहब...

रमा ने बात काटकर कहा–जी नहीं, वहाँ मुझे नहीं जाना है।

दारोगा–तो क्या कोई दूसरा शिकार है? बँगले पर भी आज कुछ कम बहार न रहेगी। वहीं आपके दिल-बहलाव का कुछ सामान हाजिर हो जायेगा।

रमा ने एक बारगी आँखें लाल करके कहा–क्या आप मुझे शोहदा समझते हैं? मैं इतना जलील नहीं हूँ।

दारोगा ने कुछ लज्जित होकर कहा–अच्छा साहब, गुनाह हुआ, माफ कीजिए। अब की ऐसी गुस्ताखी न होगी; लेकिन अभी आप अपने को खतरे के बाहर न समझें। मैं आपको किसी ऐसी जगह न जाने दूँगा, जहाँ मुझे पूरा इत्मीनान न होगा। आपको खबर नहीं, आपके कितने दुश्मन हैं। मैं आप ही के फायदे के खयाल से कह रहा हूँ।

रमा ने होंठ चबाकर कहा–बेहतर हो कि आप मेरे फायदा का इतना खयाल न करें। आप लोगों ने मुझे मटियामेट कर दिया और अब भी मेरा गला नहीं छोड़ते। मुझे अब अपने हाल पर मरने दीजिए। मैं इस गुलामी से तंग आ गया हूँ। मैं माँ के पीछे-पीछे चलने वाला बच्चा नहीं बनना चाहता। आप अपनी मोटर चाहते हैं; शौक से ले जाइए। मोटर की सवारी और बँगले में रहने के लिए पन्द्रह सौ आदमियों को कुर्बान करना पड़े। मेरी छाती इतनी मजबूत नहीं है। आप अपनी मोटर ले जाइए।

यह कहता हुआ वह मोटर से उतर पड़ा और जल्दी से आगे बढ़ गया। दारोगा ने कई बार पुकारा, ज़रा सुनिए, बात तो सुनिए; लेकिन उसने फिरकर देखा तक नहीं। ज़रा और आगे चलकर वह एक मोड़ से घूम गया। इसी सड़क पर जज का बँगला था। सड़क पर कोई आदमी न मिला। रमा कभी इस पटरी पर कभी उस पटरी पर जा-जाकर बँगलों के नम्बर पढ़ता चला जाता था। सहसा एक नम्बर देखकर वह रुक गया। एक मिनट तक खड़ा देखता रहा कि कोई आदमी निकले तो उससे पूछूँ, साहब हैं या नहीं। अन्दर जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। खयाल आया, जज ने पूछा, तुमने क्यों झूठी गवाही दी, तो क्या जवाब दूँगा। यह कहना कि पुलिस ने मुझसे ज़बरदस्ती गवाही दिलवायी, प्रलोभन दिया, मारने की धमकी दी, लज्जास्पद बात है। अगर वह पूछे कि तुमने केवल दो-तीन साल की सजा से बचने के लिए इतना बड़ा कलंक सिर पर ले लिया, इतने आदमियों की जान लेने पर उतारू हो गये। उस वक्त तुम्हारी बुद्धि कहाँ गयी थी, तो उसका मेरे पास क्या जवाब है? ख्वामख्वाह लज्जित होना पड़ेगा। बेवकूफ बनाया जाऊँगा। वह लौट पड़ा। इस लज्जा का सामना करने की उसमें सामर्थ्य न थी। लज्जा ने सदैव वीरों को परास्त किया है। जो काल से भी नहीं डरते, वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं करते। आग में झुक जाना, इसकी अपेक्षा कहीं सहज है। लाज की रक्षा ही के लिए बड़े-बड़े राज्य मिट गये हैं, रक्त की नदियाँ बह गयी हैं, प्राणों की होली खेल डाली गयी है। उसी लाज ने आज रमा के पग भी पीछे हटा दिये। शायद जेल की सजा से वह इतना भयभीत न होता।

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