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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


ज़ोहरा मुस्कुराकर बोली–मैं इस रूप में न थी। देवीदीन के घर से मैं अपने घर गयी और ब्रह्म-समाजी लेडी का स्वाँग भरा। न जाने मुझमें ऐसी कौन सी बात है, जिससे दूसरों को फौरन पता चल जाता है कि मैं कौन हूँ; क्या हूँ। और ब्रह्मों लेडियों को देखती हूँ, कोई उनकी तरफ आँखें तक नहीं उठाता। मेरा पहनावा-ओढ़ावा वही है, मैं भड़कीले कपड़े या फजूल के गहने बिलकुल नहीं पहनती। फिर भी सब मेरी तरफ आँखें फाड़-फाड़कर देखते हैं। मेरी असलियत नहीं छिपती। यही खौ़फ मुझे था कि कहीं जालपा भाँप न जाय; लेकिन मैंने दाँत खूब साफ कर लिये थे। पान का निशान तक न था। मालूम होता था किसी कॉलेज की लेडी टीचर होगी। इस शक्ल में मैं वहाँ पहुँची। ऐसी सूरत बना ली कि वह क्या कोई भी न भाँप सकता था। परदा ढका रह गया। मैंने दिनेश की माँ से कहा–मैं यहाँ यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हूँ। अपना घर मुँगेर बतलाया। बच्चों के लिए मिठायी ले गयी थी। हमदर्द का पार्ट खेलने गयी थी, और मेरा खयाल है कि मैंने खूब खेला। दोनों औरतें बेचारी रोने लगीं। मैं भी जब्त न कर सकी। उनसे कभी-कभी मिलते रहने का वादा किया। जालपा इसी बीच में गंगाजल लिये पहुँची। मैंने दिनेश की माँ से बँगला में पूछा–क्या यह कहारिन है? उसने कहा, नहीं, यह भी तुम्हारी ही तरह हम लोगों के दुःख में शरीक होने आ गयी हैं। यहाँ इनका शौहर किसी दफ्तर में नौकर है। और तो कुछ नहीं मालूम। रोज सवेरे आ जाती है और बच्चों को खेलाने ले जाती हैं। मैं अपने हाथ से गंगाजल लाया करती थी। मुझे रोक दिया और खुद लाती हैं। हमें तो इन्होंने जीवन-दान दिया। कोई आगे-पीछे न था। बच्चे दाने-दाने को तरसते थे। जब से यह आ गयी हैं, हमें कोई कष्ट नहीं है। न जाने किस शुभ कर्म का यह वरदान हमें मिला है।

उस घर के सामने ही एक छोटा सा पार्क है। मुहल्ले भर के बच्चे वहीं खेला करते हैं। शाम हो गयी थी। जालपा देवी ने दोनों बच्चों को साथ लिया और पार्क की तरफ चलीं। मैं जो मिठायी ले गयी थी, उसमें से बूढ़ी ने एक-एक मिठाई दोनों बच्चों को दी थी। दोनों कूद-कूदकर नाचने लगे। बच्चों की इस खुशी पर मुझे रोना आ गया। दोनों मिठाइयाँ खाते हुए जालपा के साथ हो लिये। जब पार्क में दोनों बच्चे खेलने लगे, तब जालपा से मेरी बातें होने लगीं !

रमा ने कुर्सी और करीब खींच ली, और आगे झुक गया। बोला–तुमने किस तरह बातचीत शुरू की।

ज़ोहरा–कह तो रही हूँ। मैंने पूछा–जालपा देवी, तुम कहाँ रहती हो? घर की दोनों औरतों से तुम्हारी बड़ाई सुनकर तुम्हारे ऊपर आशिक हो गयी हूँ।

रमा–यही लफ्ज कहा था तुमने?

ज़ोहरा–हाँ, ज़रा मजाक करने की सूझी। मेरी तरफ ताज्जुब से देखकर बोली–तुम तो बंगालिन नहीं मालूम होतीं। इतनी साफ हिन्दी कोई बंगालिन नहीं बोलती। मैंने कहा–मैं मुँगेर की रहने वाली हूँ और वहाँ मुसलमानी औरतों के साथ बहुत मिलती-जुलती रही हूँ। आपसे कभी-कभी मिलने का जी चाहता है। आप कहाँ रहती हैं। कभी-कभी दो घड़ी के लिए चली आऊँगी। आपके साथ घड़ी भर बैठकर मैं भी आदमीयत सीख जाऊँगी।

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