उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
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उसी बँगले में ठीक दस बजे मुकदमा पेश हुआ। सावन की झड़ी लगी हुई थी। कलकत्ता दलदल हो रहा था; लेकिन दर्शकों का एक अपार समूह सामने मैदान में खड़ा था। महिलाओं में दिनेश की पत्नी और माता भी आयी हुई थीं। पेशी से दस-पन्द्रह मिनट पहले जालपा और ज़ोहरा भी बन्द गाड़ियों में आ पहुँचीं। महिलाओं को अदालत के कमरे में जाने की आज्ञा मिल गयी।
पुलिश की शहादतें शुरू हुईं। डिप्टी सुपरिंटेंडेंट, इन्स्पेक्टर, दारोगा, नायब दारोगा–सभी के बयान हुए। दोनों तरफ के वकीलों ने जिरहें भी कीं; पर इन कार्यवाइयों में उल्लेखनीय कोई बात न थी। ज़ाब्ते की पाबन्दी की जा रही थी। इसके बाद रमानाथ का बयान हुआ; पर उसमें भी कोई नयी बात न थी। उसने अपने जीवन के गत एक वर्ष का पूरा वृतान्त कह सुनाया। कोई बात न छिपायी। वकील के पूछने पर उसने कहा–जालपा के त्याग, निष्ठा और सत्य-प्रेम ने मेरी आँखें खोलीं और उससे भी ज्यादा ज़ोहरा के सौजन्य और निष्कपट व्यवहार ने। मैं इसे अपना सौभाग्य समझता हूँ कि मुझे उस तरफ़ से प्रकाश मिला जिधर औरों को अन्धकार मिलता है। विष में मुझे सुधा प्राप्त हो गयी।
इसके बाद सफ़ाई की तरफ़ से देवीदीन, जालपा और ज़ोहरा के बयान हुए। वकीलों ने इनसे भी सवाल किया; पर सच्चे गवाह क्या उखड़ते। ज़ोहरा का बयान बहुत ही प्रभावोत्पादक था। उसने देखा, जिस प्राणी को वह जंज़ीरों से जकड़ने के लिए वह भेजी गयी है, वह खुद दर्द से तड़प रहा है, उसे मरहम की ज़रूरत है, जंजीरों की नहीं। वह सहारे का हाथ चाहता है। धक्के का झोंका नहीं। जालपा देवी के प्रति उसकी श्रद्धा, उसका अटल विश्वास देखकर मैं अपने को भूल गयी। मुझे अपनी नीचता, अपनी स्वार्थान्धता पर लज्जा आयी। मेरा जीवन कितना अधम, कितना पतित है, यह मुझ पर उस वक्त खुला, और जब मैं जालपा से मिली, तो उसकी निष्काम सेवा, उसका उज्ज्वल तप देखकर मेरे मन के रहे-सहे संस्कार भी मिट गये। विलास-युक्त जीवन से मुझे घृणा हो गयी। मैंने निश्चय कर लिया, इसी अंचल में मैं भी आश्रय लूँगी।
मगर उससे भी ज्यादा मार्के का बयान जालपा का था। उसे सुनकर दर्शकों की आँखों में आँसू आ गये। उसके अन्तिम शब्द ये थे–मेरे पति निर्दोष हैं। ईश्वर की दृष्टि में ही नहीं, नीति की दृष्टि में भी वह निर्दोष हैं। उनके भाग्य में मेरी विलासासक्ति का प्रायश्चित करना लिखा था, वह उन्होंने किया। वह बाजार से मुँह छिपाकर भागे। उन्होंने मुझ पर अगर कोई अत्याचार किया, तो वह यही कि मेरी इच्छाओं को पूरा करने में उन्होंने सदैव कल्पना से काम लिया। मुझे प्रसन्न करने के लिए, मुझे सुखी करने के लिए उन्होंने अपने ऊपर बड़े-से बड़ा भार लेने में कभी संकोच नहीं किया। वह यह भूल गये कि विलासवृत्ति संतोष करना नहीं जानती। जहाँ मुझे रोकना उचित था, वहाँ उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया, और इस अवसर पर भी, मुझे पूरा विश्वास है, मुझपर अत्याचार करने की धमकी देकर ही उनकी जबान बन्द की गयी थी। अगर अपराधिनी हूँ, तो मैं ही हूँ, जिसके कारण इन्हें इतने कष्ट झेलने पड़े। मैं मानती हूँ कि मैंने उन्हें अपना बयान बदलने के लिए मजबूर किया। अगर मुझे विश्वास होता कि वह डाकों में शरीक हुए, तो सबसे पहले मैं उनका तिरस्कार करती। मैं यह नहीं सह सकती थी कि वह निरपराधियों की लाश पर अपना भवन खड़ा करें। जिन दिनों यहाँ डाके पड़े, उन तारीखों में मेरे स्वामी प्रयाग में थे। अदालत चाहे तो टेलीफोन द्वारा इसकी जाँच कर सकती है। अगर जरूरत हो, तो म्युनिसिपल बोर्ड के अधिकारियों का बयान लिया जा सकता है। ऐसी दशा में मेरा कर्तव्य इसके सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता था, जो मैंने किया।
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