उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जागेश्वरी बोली–यह जाकर क्या करेंगे, बीमार को देखकर तो इनकी नानी पहले ही मर जाती है।
देवीदीन ने रतन की कोठरी में जाकर देखा। रतन बाँस की खाट पर पड़ी हुई थी। देह सूख गयी थी। वह सूर्यमुखी का-सा खिला हुआ चेहरा मुरझाकर पीला हो गया था। वह रंग जिन्होंने चित्र को जीवन और स्पन्दन प्रदान कर रक्खा था, उड़ गये थे, केवल आकार शेष रह गया था। वह श्रवण-प्रिय, प्राणप्रद, विकास और आह्लाद में डूबा हुआ संगीत मानो आकाश में विलीन हो गया था, केवल उसकी क्षीण उदास प्रतिध्वनि रह गयी थी। ज़ोहरा उसके ऊपर झुकी उसे करूण, विवश, कातर, निराश तथा तृष्णामय नेत्रों से देख रही थी। आज-साल भर से उसने रतन की सेवा-शुश्रूषा में दिन को दिन और रात को रात न समझा था। रतन ने उसके साथ जो स्नेह किया था, उस अविश्वास और बहिष्कार के वातावरण में जिस खुले, निःसंकोच भाव से उसके साथ बहनापा निभाया था, उसका एहसान वह और किस तरह मानती। जो सहानुभूति उसे जालपा से भी नहीं मिली वह रतन ने प्रदान की। दुःख और परिश्रम ने दोनों को मिला दिया, दोनों की आत्माएँ संयुक्त हो गयीं। यह घनिष्ठ स्नेह उसके लिए एक नया ही अनुभव था, जिसकी उसने कभी कल्पना भी न की थी। इस मैत्री में उसके वंचित हृदय ने पति-प्रेम और पुत्र-स्नेह, दोनों ही पा लिया।
देवीदीन ने रतन के चेहरे की ओर सचिन्त नेत्रों से देखा, तब उसकी नाड़ी हाथ में लेकर पूछा–कितनी देर से नहीं बोलीं?
जालपा ने आँखें पोंछकर कहा–अभी तो बोलती थीं। एकाएक आँखें ऊपर चढ़ गयीं और बेहोश हो गयीं। वैद्यजी को लेकर अभी तक नहीं आये?
देवीदीन ने कहा–इनकी दवा वैद्य के पास नहीं है।
यह कहकर उसने थोड़ी सी राख ली, रतन के सिर पर हाथ फेरा, कुछ मुँह में बुदबुदाया और एक चुटकी राख उसके माथे पर लगा दी। तब पुकारा–रतन बेटी, आँखें खोलो।
रतन ने आँखें खोल दीं और इधर-उधर सकपकायी आँखों से देखकर बोली–मेरी मोटर आयी थी न? कहाँ गया वह आदमी? उससे कह दो, थोड़ी देर बाद लाये। ज़ोहरा आज मैं तुम्हें अपने बगीचे की सैर कराऊँगी। हम दोनों झूले पर बैठेंगी।
ज़ोहरा फिर रोने लगी। जालपा भी आँसुओं के वेग को न रोक सकी। रतन एक क्षण तक छत की ओर देखती रही। फिर एकाएक जैसे उसकी स्मृति जाग उठी हो, वह लज्जित होकर एक उदास मुस्कुराहट के साथ बोली–मैं सपना देख रही थी दादा !
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