उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
लोहित आकाश पर कालिमा का परदा पड़ गया था। उसी वक्त रतन के जीवन पर मृत्यु ने परदा डाल दिया।
रमानाथ वैद्यजी को लेकर पहर रात को लौटे, तो यहाँ मौत का सन्नाटा छाया हुआ था। रतन की मृत्यु का शोक वह शोक न था, जिसमें आदमी हाय-हाय करता है, बल्कि वह शोक जिसमें हम मूक रुदन करते हैं, जिसकी याद कभी नहीं भूलती, जिसका बोझ कभी दिल से नहीं उतरता।
रतन के बाद ज़ोहरा अकेली हो गयी। दोनों साथ सोती थीं, साथ काम करती थीं। अब अकेले ज़ोहरा का जी किसी काम में न लगता। कभी नदी-तट पर जाकर रतन को याद करती और रोती, कभी उसे आम के पौधे के पास जाकर घण्टों खड़ी रहती, जिसे उन दोनों ने लगाया था। मानो उसका सुहाग लुट गया हो। जालपा को बच्चे के पालन और भोजन बनाने से इतना अवकाश न मिलता था कि उसके साथ बहुत उठती बैठती, और बैठती भी तो रतन की चर्चा होने लगती और दोनों रोने लगतीं।
भादों का महीना था। पृथ्वी और जल में रण छिड़ा हुआ था। जल की सेनाएँ वायुयान पर चढ़कर आकाश से जल-शरों की वर्षा कर रही थीं। उसकी थल-सेनाओं ने पृथ्वी पर उत्पात मचा रक्खा था। गंगा गाँवों और क़स्बों को निगल रही थीं। गाँव-के-गाँव बहते चले जाते थे। ज़ोहरा नदी के तट पर बाढ़ का तमाशा देखने लगी। वह कृशांगी गंगा इतनी विशाल हो सकती है, इसका वह अनुमान भी न कर सकती थी। लहरें उन्मत्त होकर गरजती, मुँह से फेन निकालती, हाथों उछल रही थीं। चतुर फेकैतों की तरह पैंतरे बदल रही थीं। कभी एक कदम आतीं, फिर पीछे लौट पड़तीं और चक्कर खाकर फिर आगे को लपकतीं। कहीं कोई झोपड़ा डगमगाता और तेज़ी से बहा जा रहा था, मानो कोई शराबी दौड़ा जाता हो। कहीं कोई वृक्ष डाल-पत्तों समेत डूबता-उतराता किसी पाषाणयुग के जन्तु के भाँति तैरता चला जाता था। गायें और भैंसे, खाट और तख्ते मानो तिलिस्मी चित्रों की भाँति आँखों के सामने से निकल जाते थे।
साहसा एक किश्ती नजर आयी। उस पर कई स्त्री-पुरुष बैठे थे। बैठे क्या थे, चिमटे हुए थे। किश्ती कभी ऊपर जाती, कभी नीचे आती। बस यही मालूम होता था कि अब उलटी, अब उलटी; पर वाह रे साहस ! सब अब भी ‘गंगा माता की जय !’ पुकारते जाते थे। स्त्रियाँ अब भी गंगा के यश के गीत गाती थीं ! जीवन और मृत्यु का ऐसा संघर्ष किसने देखा होगा ! दोनों तरफ के आदमी किनारे पर, एक तनाव की दशा में हृदय को दबाये खड़े। जब किश्ती करवट लेती, तो लोगों के दिल उछल-उछलकर ओठों तक आ जाते। रस्सियाँ फेंकने की कोशिश की जाती, पर रस्सी बीच ही में गिर पड़ती थी। एकाएक एक बार किश्ती उलट ही गयी। सभी प्राणी लहरों में समा गये। एक क्षण कई स्त्री-पुरुष डूबते-उतराते दिखायी दिये, फिर निगाहों से ओझल हो गये। केवल एक उजली-सी चीज़ किनारे की ओर चली आ रही थी। वह एक रेले में तट से कोई बीस गज तक आ गयी। समीप से मालूम हुआ स्त्री है। ज़ोहरा, जालपा और रमा–तीनों खड़े थे। स्त्री की गोद में एक बच्चा भी नजर आता था। दोनों को निकाल लाने के लिए तीनों विकल हो उठे; पर बीस गज तक तैरकर उस तरफ जाना आसान न था। फिर रमा तैरने में बहुत कुशल न था। कहीं लहरों के जोर में पाँव उखड़ जायें, तो फिर बँगाल की खाड़ी के सिवा और कहीं ठिकाना न लगे !
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