उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जालपा को नींद आ रही थी, आँखें बन्द किये हुए बोली–अब सोने दो भई, सवेरे उठना है।
रमानाथ–अगर तुम्हारी राय हो, तो किसी सराफ से वादे पर गहने बनवा लाऊँ। इसमें कोई हर्ज तो है नहीं।
जालपा की आँखें खुल गयीं। कितना कठोर प्रश्न था। किसी मेहमान से पूछना–कहिए तो आपके लिए भोजन लाऊँ, कितनी बड़ी अशिष्टता है। इसका तो यही आशय है कि मेहमान को खिलाना नहीं चाहते। रमा को चाहिए था कि चीजें लाकर जालपा के सामने रख देता। उसके बार-बार पूछने पर भी यही कहना चाहिए था कि दाम देकर लाया हूँ। तब वह अलबत्ता खुशी होती। इस विषय में उसकी सलाह लेना, घाव पर नमक छिड़कना था। रमा की ओर अविश्वास की आँखों से देखकर बोली–मैं तो गहनों के लिए इतनी उत्सुक नहीं हूँ।
रमानाथ–नहीं यह बात नहीं, इसमें क्या हर्ज है कि किसी सराफ से चीज़ें ले लूँ? धीरे-धीरे उसके रुपये चुका दूँगा।
जालपा ने दृढ़ता से कहा–नहीं, मेरे लिए कर्ज लेने की ज़रूरत नहीं। मैं वेश्या नहीं हूँ कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना रास्ता लूँ। मुझे तुम्हारे साथ जीना और मरना है। अगर मुझे सारी उम्र बे गहनों के रहना पड़े, तो भी मैं कर्ज लेने को न कहूँगी। औरतें गहनों की इतनी भूखी नहीं होती। घर के प्राणियों को संकट में डालकर गहने पहनने वाली दूसरी होंगी। लेकिन तुमने तो पहले कहा था कि जगह बड़ी आमदनी की है, मुझे तो कोई विशेष बचत दिखायी नहीं देती।
रमानाथ–बचत तो ज़रूर होती है और अच्छी होती; लेकिन जब अहलकारों के मारे बचने भी पाये। सब शैतान सिर पर सवार रहते हैं। मुझे पहले न मालूम था कि यहाँ इतने प्रेतों की पूजा करनी होगी।
जालपा–तो अभी कौन सी जल्दी है, बनते रहेंगे धीरे-धीरे।
रमानाथ–खैर तुम्हारी सलाह है, तब एक-आध महीने और चुप रहता हूँ। मैं सबसे पहले कंगन बनवाऊँगा।
जालपा ने गद्गद होकर कहा–तुम्हारे पास अभी इतने रुपये कहाँ होंगे?
रमानाथ–इसका उपाय तो मेरे पास है। तुम्हे कैसा कंगन पसन्द है?
जालपा अब अपने कृत्रिम संयम को न निभा सकी। आलमारी में से आभूषणों की सूची-पत्र निकालकर रमा को दिखाने लगी। इस समय वह इतनी तत्पर थी, मानों सोना आकर रक्खा हुआ है, सुनार बैठा हुआ है, केवल डिजाइन ही पसन्द करना बाकी है। उसने सूची के दो डिजाइन पसन्द किये। दोनों वास्तव में बहुत ही सुन्दर थे। पर रमा उनका मूल्य देखकर सन्नाटे में आ गया। एक एक हजा़र का था, दूसर आठ सौ का।
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