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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमा उसके हाथों से केसों को ले सके, इतना कड़ा संयम उसमें न था। उसे तकाजे सहना, लज्जित होना, मुँह छिपाये फिरना, चिन्ता की आग में जलना, सब कुछ सहना मंजूर था। ऐसा काम करना नामंजूर था, जिससे जालपा का दिल टूट जाये, वह अपने को अभागिन समझने लगे। उसका सारा ज्ञान सारी चेष्टा सारा विवेक इस आघात का विरोध करने लगा। प्रेम और परिस्थितियों के संघर्ष मंे प्रेम ने विजय पायी।

उसने मुसकराकर कहा–रहने दो, अब ले लिया है, तो क्या लौटायें। अम्माजी भी हँसेंगी।

जालपा ने बनावटी काँपते हुए कण्ठ से कहा–अपनी चादर देखकर ही पाँव फैलाना चाहिए। एक नयी विपत्ति मोल लेने की क्या ज़रूरत है।

रमा ने मानों जल में डूबते हुए कहा–ईश्वर मालिक है।
और तुरन्त नीचे चला गया।

हम क्षणिक मोह और संकोच में पड़कर अपने जीवन के सुख और शान्ति को कैसे होम कर देते हैं। अगर जालपा मोह के इस झोंके में अपने को स्थिर रख सकती, अगर रमा संकोच के आगे सिर न झुका देता, दोनों के हृदय में प्रेम का सच्चा प्रकाश होता, तो वे पथ-भ्रष्ट होकर सर्वनाश की ओर न जाते।

ग्यारह बज गये थे। दफ्तर के लिए देर हो रही थी, पर रमा इस तरह जा रहा था, जैसे कोई अपने प्रिय बन्धु की दाह-क्रिया करके लौट रहा हो।

[१५]

जालपा अब वह एकान्तवासिनी रमणी न थी, जो दिन भर मुँह लपेटे उदास पड़ी रहती थी। उसे अब घर में बैठना अच्छा न लगता था। अब तक तो वह मजबूर थी, कहीं आ-जा न सकती थी। अब ईश्वर की दया से उसके पास भी गहने हो गये थे। फिर वह क्यों मन मारे घर में पड़ी रहती। वस्त्राभूषण कोई मिठाई तो नहीं जिसका स्वाद एकान्त में लिया जा सके। आभूषणों को सन्दूकची में बन्द रखने से क्या फायदा। मुहल्ले या बिरादरी में कहीं से बुलावा आता, तो वह सास के साथ अवश्य जाती। कुछ दिनों के बाद सास की ज़रूरत भी न रही। वह अकेली ही आने-जाने लगी। फिर कार्य-प्रयोजन की भी कैद नहीं रही। उसके रूप-लावण्य, वस्त्र-आभूषण और शील-विनय ने मुहल्ले की स्त्रियों में उसे जल्दी ही सम्मान के पद पर पहुँचा दिया। उसके बिना मण्डली सूनी रहती थी। उसका कंठ-स्वर इतना कोमल था, भाषण इतना मधुर, छवि इतनी अनुपम कि वह मण्डली की रानी मालूम होती थी। उसके आने से मुहल्ले के नारी-जीवन में जान-सी पड़ गयी। नित्य ही कहीं-न-कहीं जमाव हो जाता। घण्टे-दो-घण्टे गा बजाकर या गपशप करके रमणियाँ दिल बहला लिया करतीं। कभी किसी के घर, कभी किसी के घर, फागुन में पन्द्रह दिन बराबर गाना होता रहा। जालपा ने ऐसा रूप पाया था, वैसा ही उदार हृदय भी पाया था। पान-पत्ते का खर्च प्रायः उसी के मत्थे पड़ता। कभी-कभी गायनें बुलायी जाती, उनकी सेवा-सत्कार का भार उसी पर था। कभी-कभी वह स्त्रियों के साथ गंगा स्नान करने जाती, ताँगे का किराया और गंगा तट का जल-पान का खर्च भी उसी के मत्थे जाता। इस तरह उसके दो-तीन रुपये रोज़ उड़ जाते थे। रमा आदर्श पति था। जालपा अगर माँगती तो प्राण तक उसके चरणों पर रख देता। रुपये की हकीकत ही क्या थी? उसका मुँह जोहता रहता था। जालपा उससे इन जमघटों की रोज चर्चा करती। उसकी स्त्री-समाज में कितना आदर-सम्मान है, यह देखकर वह फूला न समाता था।

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