उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
एक दिन इस मण्डली को सिनेमा देखने की धुन सवार हुई। वहाँ की बहार देखकर सब-की-सब मुग्ध हो गयीं। फिर तो आये दिन सिनेमा की सैर होने लगी। रमा को अब तक सिनेमा का शौक न था। शौक होता भी तो क्या करता। अब हाथ में पैसे आने लगे थे, उस पर जालपा का आग्रह, फिर भला वह क्यों न जाता? सिनेमा-गृह में ऐसी कितनी ही रमणियाँ मिलतीं, जो मुँह खोले निःसंकोच हँसती-बोलती रहती थीं। उनकी आजादी गुप्तरूप से जालपा पर भी जादू डालती जाती थी। वह घर से बाहर निकलते ही मुँह खोल लेती मगर संकोचवश परदेवाली स्त्रियों के ही स्थान पर बैठती। उसकी कितनी इच्छा होती कि रमा भी उसके साथ बैठता। आखिर वह उन फैशनेबुल औरतों से किस बात में कम है? रूपरंग में वह हेठी नहीं। सज धज में किसी से कम नहीं। बातचीत करने में कुशल। फिर वह क्यों परदेवालियों के साथ बैठे। रमा बहुत शिक्षित न होने पर भी देश और काल के प्रभाव से उदार था। पहले तो वह परदे का ऐसा अनन्त भक्त था कि माता को कभी गंगा-स्नान कराने लिवा जाता, तो पण्डों तक से न बोलने देता। कभी माता की हँसी मर्दाने में सुनायी देती, तो आकर बिगड़ता–तुमको ज़रा भी शर्म नहीं है अम्मा। बाहर लोग बैठे हुए हैं, और तुम हँस रही हो। माँ लज्जित हो जाती थीं। किन्तु अवस्था के साथ रमा का यह लिहाज गायब हो जाता था। उस पर जालपा की रूप छटा उसके साहस को और भी उत्तेजित करती थी। जालपा, रूपहीन, काली-कलूटी, फूहड़ होती तो वह जबरदस्ती उसको परदे में बैठाता। उसके साथ घूमने या बैठने में उसे शर्म आती। जालपा-जैसी अन्नय सुन्दरी के साथ सैर करने में आनन्द के साथ गौरव भी तो था। वहाँ के सभ्य समाज की कोई महिला रूप गठन, श्रृंगार में जालपा की बराबरी न करती थी। देहात की लड़की होने पर भी शहर के रंग में वह इस तरह रँग गयी थी, मानों जन्म से शहर ही में आयी है। थोड़ी सी कमी अँग्रेजी शिक्षा की थी, उसे भी रमा पूरी किये देता था।
मगर परदे का यह बन्धन टूटे, कैसे। भवन में रमा के कितने ही मित्र कितने ही जान-पहचान के लोग बैठे नज़र आते थे। वे उसे जालपा के साथ बैठे देखकर कितना हँसेंगे। आखिर एक दिन उसने समाज के सामने ताल ठोंककर खड़े हो जाने का निश्चय कर ही लिया। जालपा से बोला–आज हम-तुम सिनेमाघर में साथ बेठेंगे।
जालपा के हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। हार्दिक आनन्द की आभा चेहरे पर झलक उठी। बोली–सच ! नहीं भाई, साथवालियाँ जीने न देंगी।
रमानाथ–इस तरह डरने से तो फिर कुछ न होगा। यह क्या स्वाँग है कि स्त्रियाँ मुँह छिपाये चिक की आड़ में बैठी रहें।
इस तरह यह मामला भी तय हो गया। पहले दिन दोनों झेंपते रहे, लेकिन दूसरे दिन से हिम्मत खुल गयी। कई दिन के बाद वह समय भी आया कि रमा और जालपा सन्ध्या समय पार्क में साथ-साथ टहलते दिखायी दिये।
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