लोगों की राय

उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास)

ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

438 पाठक हैं

ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमा ने झिझकते हुए कहा–हाँ इधर तो वर्षों से नहीं बैठा।

रतन–तो आप इन बच्चों को सँभालकर बैठिए, मैं आपको झुलाऊँगी। अगर उस डाल से न छू ले तो कहिएगा ! रमा के प्राण सूख गये। बोला–आज तो बहुत देर हो गयी है, फिर कभी आऊँगा।

रतन–अजी अभी क्या देर हो गयी है, दस भी नहीं बजे। घबड़ाकर नहीं, अभी बहुत रात पड़ी है। खूब झूलकर जाइएगा। कल जालपा को लाइएगा, हम दोनों झूलेंगे।

रमा झूले पर से उतर आया तो उसका चेहरा सहमा हुआ था। मालूम होता था, अब गिरा, अब गिरा। वह लड़खड़ाता हुआ साइकिल की ओर चला और उस पर बैठकर तुरन्त घर भागा।

कुछ दूर तक उसे कुछ होश न रहा। पाँव आप-ही-आप पैडल घुमाते जाते थे। आधी दूर जाने के बाद उसे होश आया। उसने साइकिल घुमा दी, कुछ दूर चला फिर उतरकर सोचने लगा–आज संकोच में पड़कर कैसी बाज़ी हाथ से खोयी, वहाँ से चुपचाप अपना-मुँह लिये लौटा आया। क्यों उसके मुँह से आवाज नहीं निकली। रतन कुछ हौवा तो थी नहीं, जो उसे खा जाती। सहसा उसे याद आया, थैली में आठ सौ रुपये थे, जालपा ने झुँझलाकर थैली की, थैली उसके हवाले कर दी। शायद उसने भी गिना नहीं, नहीं तो ज़रूर कहती। कहीं ऐसा न हो, थैली, किसी को दे दे, या और रुपयों में मिला दे, तो ग़जब ही हो जाये। कहीं का न रहूँ। क्यों न इसी वक्त चलकर बेशी रुपये माँग लाऊँ, लेकिन देर बहुत हो गयी है, सबेरे फिर आना पड़ेगा।

मगर यह दो सौ रुपये मिल भी गये, तब भी तो पाँच सौ रुपयों की कमी रहेगी। उसका क्या प्रबन्ध होगा? ईश्वर ही बेड़ा पार लगायें तो लग सकता है। सवेरे कुछ प्रबन्ध न हुआ तो क्या होगा ! यह सोचकर वह काँप उठा।

जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं, जब निराशा में भी हमें आशा होती है। रमा ने सोचा एक बार फिर गंगू के पास चलूँ; शायद दुकान पर मिल जाये, उसके हाथ पाँव जोड़ूँ। सम्भव है कुछ दया आ जाये। वह सराफे जा पहुँचा; मगर गंगू की दुकान बन्द थी। वह लौटा ही था कि चरनदास आता हुआ दिखायी दिया। रमा को देखते ही बोला–बाबूजी आपने तो इधर का रास्ता ही छोड़ दिया। कहिए रुपये कब तक मिलेंगे?

रमा ने विनम्र भाव से कहा–अब बहुत जल्द मिलेंगे भाई, देर नहीं है। देखो गंगू के रुपये चुकाये हैं, अब की तुम्हारी बारी है।

चरनदास–वह सब किस्सा मालूम है, गंगू ने होशियारी से अपने रुपये न ले लिये होते तो हमारी तरह टापा करते। साल भर हो रहा है। रुपये सैकड़ें का सूद भी रखिए ४८) होते हैं। कल आकर हिसाब कर जाइए, सब नहीं तो आधा-तिहाई कुछ तो दीजिए। लेते-देते रहने से मालिक को ढाँढ़स रहता है। कान में तेल डालकर बैठे रहने से तो उसे शंका होने लगती है कि इनकी नीयत खराब है। तो कल कब आइएगा?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book