उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जब ताँगा गवर्नमेंट हाउस के पास पहुँचा, तो रमा ने चौंककर कहा–चुंगी के दफ्तर चलो। ताँगेवाले ने घोड़ा फेर दिया।
ग्यारह बजते-बजते रमा दफ़्तर पहुँचा। उसका चेहरा उतरा हुआ था। छाती धड़क रही थी। बड़े बाबू ने ज़रूर पूछा होगा। जाते ही बुलायेंगे। दफ़्तर में ज़रा भी रियायत नहीं करते। ताँगे से उतरते ही उसने पहले कमरे की तरफ़ निगाह डाली। देखा, कई आदमी खड़े उसकी राह देख रहे हैं। वह उधर न जाकर रमेश बाबू के कमरे की ओर गया।
रमेश बाबू ने पूछा–तुम अब तक कहाँ थे जी, खजांची साहब तुम्हें खोजते फिरते हैं? चपरासी मिला था?
रमा ने अटकते हुए कहा–मैं घर पर न था। जरा वकील साहब की तरफ़ चला गया था। एक बड़ी मुसीबत में फँस गया हूँ।
रमेश–कैसी मुसीबत, घर पर तो कुशल है?
रमानाथ–जी हाँ, घर पर तो कुशल है। कल शाम को यहाँ काम बहुत था, मैं उसमें ऐसा फँसा कि वक्त की कुछ खबर ही न रही। जब काम खत्म करके उठा, तो खजांची साहब चले गये थे। मेरे पास आमदनी के आठ सौ रुपये थे। सोचने लगा इसे कहाँ रखूँ। मेरे कमरे में कोई सन्दूक ही नहीं। यही निश्चय किया कि साथ लेता जाऊँ। पाँच सौ रुपये नकद थे वह तो मैंने थैली में रक्खे, तीन सौ रुपये के नोट जेब में रख लिये और घर चला। चौंक में दो एक चीजें लेनी थीं। उधर से होता हुआ घर पहुँचा तो नोट गायब थे।
रमेश बाबू ने आँखें फाड़कर कहा–तीन सौ के नोट गायब हो गये?
रमानाथ–जी हाँ, कोट के ऊपर जेब में थे। किसी ने निकाल लिये।
रमेश–और तुमको मारकर थैली नहीं छीन ली?
रमानाथ–क्या बताऊँ बाबूजी, तब से चित्त में जो दशा हो रही है, वह बयान नहीं कर सकता। तब से अब तक इसी में दौड़ रहा हूँ। कोई बन्दोबस्त न हो सका।
रमेश–अपने पिता से तो तुमने कहा ही न होगा?
रमानाथ–उनका स्वभाव तो आप जानते ही हैं। रुपये तो न देते, उलटी डाँट सुनाते।
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