उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमेश–तो फिर क्या फिक्र करोगे?
रमानाथ–आज शाम तक कोई-न-कोई फिक्र करूँगा ही।
रमेश ने कठोर भाव धारण करके कहा–तो फिर करो न ! इतनी लापरवाही तुमसे हुई कैसे ! यह मेरी समझ में नही आता। मेरी जेब से तो आज तक एक पैसा न गिरा। आँखें बन्द करके रास्ता चलते हो या नशे में थे? मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता। सच-सच बलता दो, कहीं अनाप-शनाप तो नहीं खर्च कर डाले? उस दिन मुझसे क्यों रुपये माँगे थे?
रमा का चेहरा पीला पड़ गया। कहीं कलई तो न खुल जायेगी। बात बनाकर बोला–क्या सरकारी रुपया खर्च कर डाँलूगा? उस दिन तो आपसे रुपये इसलिए माँगे थे कि बाबूजी को एक ज़रूरत आ पड़ी थी। घर में रुपये न थे। आपका खत मैंने उन्हें सुना दिया था। बहुत हँसे, दूसरा इन्तजाम कर लिया। इन नोटों के गायब होने का तो मुझे खुद आश्चर्य है।
रमेश–तुम्हें अपने पिता जी से माँगते संकोच होता तो, तो मैं खत लिखकर मँगवा लूँ।
रमा ने कानों पर हाथ रखकर कहा–नहीं बाबूजी, ईश्वर के लिए ऐसा न कीजिएगा। ऐसी ही इच्छा हो, तो मुझे गोली मार दीजिए।
रमेश ने एक क्षण तक कुछ सोचकर कहा–तुम्हें विश्वास है, शाम तक रुपये मिल जायेंगे?
रमानाथ–हाँ आशा तो है।
रमेश–तो इस थैली के रुपये जमा कर दो, मगर देखो भाई, मैं साफ-साफ कहे देता हूँ, अगर कल दस बजे रुपये न लाये तो मेरा दोष नहीं। कायदा तो यही कहता है कि मैं इसी वक्त तुम्हें पुलिस के हवाले करूँ; मगर तुम अभी लड़के हो, इसलिए क्षमा करता हूँ। वरना तुम्हें मालूम है, मैं सरकारी काम में किसी प्रकार की मुरव्वत नहीं करता। अगर तुम्हारी जगह मेरा भाई या बेटा होता, तो मैं उसके साथ भी यही सुलूक करता, बल्कि शायद इससे सख़्त। तुम्हारे साथ तो फिर भी बड़ी नर्मी कर रहा हूँ। मेरे पास रुपये होते तो तुम्हें दे देता, लेकिन मेरी हालत तुम जानते हो। हाँ, किसी का कर्ज नहीं रखता। न किसी को कर्ज़ देता हूँ, न किसी से लेता हूँ। कल रुपये न आये तो बुरा होगा। मेरी दोस्ती भी तुम्हें पुलिस के पंजे से न बचा सकेगी। मेरी दोस्ती ने आज अपना हक अदा कर दिया, वरना इस वक्त तुम्हारे हाथों में हथकड़ियाँ होती।
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