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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


‘मैंने दिन-भर से कुछ खाया नहीं।’

‘कुछ खाया नहीं! इतने बड़े अमीर के यहाँ रहता है और दिन-भर तुझे खाने को नहीं मिला?’

‘यही तो मैं कहने गया था जमादार के पास, मार तो रोज ही खाता हूँ।

आज तो खाना ही नहीं मिला कुँवर साहब का ओवर-कोट लिये खेल में दिन-भर साथ रहा। सात बजे लौटा, तो अब भी नौ बजे तक कुछ काम करना पड़ा। आटा रख नहीं सका था। रोटी बनती तो कैसे? जमादार से कहने गया था भूख की बात कहते-कहते बालक के ऊपर उसकी दीनता और भूख ने एक साथ ही जैसे आक्रमण कर दिया। वह फिर हिचकियाँ लेने लगा।

शराबी उसका हाथ पकड़कर घसीटता हुआ गली में ले चला। एक गंदी कोठरी का दरवाजा ढकेलकर, बालक को लिए हुए वह भीतर पहुँचा। टटोलते हुए सलाई से मिट्टी की ढेबरी जलाकर वह फटे कम्बल के नीचे से कुछ खोजने लगा एक पराठे का टुकड़ा मिला। शराबी उसे बालक के हाथ में देकर बोला–‘तब तक तू इसे चबा; मैं तेरा गढ़ा भरने के लिए कुछ और ले आऊँ–

‘सुनता है रे छोकरे। रोना मत, रोयेगा तो खूब पीटूँगा। मुझसे रोने से बड़ा बैर है। पाजी कहीं का, मुझे भी रुलाने का...’

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