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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


शराबी गली के बाहर भागा। उसके हाथ में एक रुपया था। बारह आने का एक देशी अद्धा और दो आने की चाय, दो आने की पकौड़ी ... नहीं-नहीं आलू मटर ...अच्छा, न सही। चारों आने का मांस ही ले लूगाँ, पर यह छोकरा! इसका गढ़ा जो भरना होगा, यह कितना खायगा और क्या खायगा? ओ! आज तक तो कभी मैंने दूसरों के खाने का सोच किया ही नहीं। तो क्या ले चलूँ?

पहले एक अद्धा ही ले चलूं।’

इतना सोचते-सोचते उसकी आंखों पर बिजली के प्रकाश की झलक पड़ी। उसने अपने को मिठाई की दूकान पर खड़ा पाया। वह शराब का अद्धा लेना भूल कर मिठाई पूरी खरीदने लगा। नमकीन लेना भी न भूला। पूरा एक रुपये का सामान लेकर वह दूकान से हटा। जल्द पहुँचने के लिए एक तरह से दौड़ने लगा। अपनी कोठरी में पहुँच उसने दोनों की पाँत बालक के सामने सजा दी। उसकी सुगंध से बालक के गले में एक तरावट पहुँची। वह मुस्कराने लगा।

शराबी ने मिट्टी की गगरी से पानी उँडेलते हुए कहा -‘नटखट कहीं का, हँसता है। सोंधी बास नाक में पहुँची न। ले खूब ठूँसकर खा ले और फिर रोया कि पिटा!’

दोनों ने बहुत दिन पर मिलने वाले दो मित्रों की तरह साथ बैठकर भरपेट खाया। सीली जगह में सोते हुए बालक ने शराबी का पुराना बड़ा कोट ओढ़ लिया था। जब उसे नींद आ गयी, तो शराबी भी कम्बल तानकर बड़बड़ाने लगा -‘सोचा था, आज सात दिन पर भर पेट पीकर सोऊँगा; लेकिन वह छोटा-सा रोना, पाजी, न जाने कहाँ से आ धमका।’

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