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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


एक चिंतापूर्ण आलोक में आज पहले-पहल शराबी ने आँख खोलकर कोठरी में बिखरी हुई दारिद्रय की विभूति को देखा, और उस घुटनों से ठुड्डी लगाये हुए निरीह बालक को। उसने तिलमिलाकर मन-ही-मन प्रश्न किया-किसने ऐसे सुकुमार फूलों को कष्ट देने के लिए निर्दयता की सृष्टि की ? आह री नियति! तब इसको लेकर मुझे घरबारी बनना पड़ेगा क्या? दुर्भाग्य! जिसे मैंने कभी सोचा भी न था। मेरी इतनी माया-ममता, जिस पर आज तक केवल बोतल का ही पूरा अधिकार था। इसका पक्ष क्यों लेने लगी? इस छोटे से पाजी ने मेरे जीवन के लिए कौन का इंद्रजाल रचने का बीड़ा उठाया है। तब क्या करूँ? कोई काम करूँ? कैसे दोनों का पेट चलेगा। नहीं, भगा दूँ इसे–आँख तो खोले।

बालक अँगड़ाई ले रहा था। वह उठ बैठा। शराबी ने कहा-‘ले’ उठ, कुछ खा ले। अभी रात का बचा हुआ है, और अपनी राह देख। तेरा नाम क्या है रे?’ बालक ने सहज हँसी हँसकर कहा– ‘मधुआ। भला हाथ-मुँह भी न धोऊँ, खाने लगूँ। जाऊँगा कहाँ?’

‘आह! कहाँ बताऊँ इसे कि चला जाय! कह दूँ कि भाड़ में जा; किंतु वह आज तक दुख की भट्टी में जलता ही तो रहा है। तो...’वह चुपचाप घर से झल्लाकर सोचता हुआ निकला -‘ले पाजी, अब यहाँ लौटूँगा ही नहीं। तू ही इस कोठरी में रह!’

शराबी घर से निकला। गोमती-किनारे पहुँचने पर उसे स्मरण हुआ की वह कितनी ही बातें सोचता आ रहा था; पर कुछ भी सोच न सका। हाथ-मुँह धोने में लगा। उजली हुई धूप निकल आयी थी। वह चुपचाप गोमती की धारा को देख रहा था। धूप की गरमी से सुखी होकर वह चिंता भुलाने का प्रयत्न कर रहा था कि किसी ने पुकारा–‘भले आदमी रहे कहाँ? सालों पर दिखायी पड़े। तुमको खोजते-खोजते मैं थक गया।’

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