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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


अन्त में उन्होंने एक दिन दण्ड हाथ में लिया और अपने गुरु स्वामी प्रकाशानन्द के पास जा पहुंचे। उस समय वे रामायण की कथा से निवृत्त हुए थे। उन्होंने ज्योंही स्वामी विद्यानन्दको देखा, फूल की तरह खिल गये। उनको विद्यानन्द पर गर्व था। हँसकर बोले–‘कहिए क्या हाल हैं, शरीर तो अच्छा है?’

परन्तु स्वामी विद्यानन्द ने कोई उत्तर न दिया, और रोते हुए उनके चरणों से लिपट गये।

स्वामी प्रकाशानन्द को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपने सबसे अधिक माननीय शिष्य को रोते देखकर उनकी आत्मा पर आघात-सा लगा। उन्हें प्यार से उठा कर बोले–क्यों कुशल तो है?

स्वामी विद्यानन्द ने बालकों की तरह फूटफूट कर रोते हुए कहा–महाराज, मैं पाखण्डी हूँ! संसार मुझे धर्मावतार कह रहा है; परन्तु मेरे मन में अभी तक अशान्ति भरी हुई है। मेरा चित्त आठों पहर अशान्त रहता है।

जिस प्रकार भले-चंगे मनुष्य को देखने के कुछ क्षण पश्चात् उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर विश्वास नहीं होता, उसी प्रकार स्वामी प्रकाशानन्द को अपने सदाचारी शिष्य की बात पर विश्वास न हुआ, और उन्हें इस व्यंग्य से मानो उनके कानों ने धोखा खाया हो, पूछा–क्या कहा?

स्वामी विद्यानन्दने सिर झुकाकर उत्तर दिया–महाराज, मेरा शरीर दग्ध हो गया है, परन्तु आत्मा अभी तक निर्मल नहीं हुई।

‘इससे तुम्हारा अभिप्राय क्या है?’

‘मैं प्रतिक्षण अशान्त रहता हूं, मानो कोई कर्तव्य है, जिसे मैं पूरा नहीं कर रहा हूँ।’

‘इसका कारण क्या हो सकता है, जानते हो?’

‘जानता’ तो आपकी सेवा में क्यों आता?’

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