कहानी संग्रह >> गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह) गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है
बाबू साहब कुढ़कर बोले–इसी को खोपड़ी पर लादना कहते हैं।
रामेश्वरी–और नहीं किसे कहते हैं! तुम्हें तो अपने आगे और किसी का दुःख-सुख सूझता ही नहीं। न-जाने कब किसका जी कैसा होता है? तुम्हें इन बातों की कोई परवा ही नहीं, अपनी चुहल से काम है।
बाबू साहब–बच्चों की प्यारी-प्यारी बातें सुनकर तो चाहे जैसा जी हो, प्रसन्न हो जाता है; मगर तुम्हारा हृदय न जाने किस धातु का बना हुआ है!
रामेश्वरी–तुम्हारा हो जाता होगा। और होने को होता भी है! मगर वैसा बच्चा भी हो तो! पराये धन से भी कहीं घर भरता है।
बाबू साहब कुछ देर चुप रहकर बोले–यदि अपना सगा भतीजा भी पराया धन कहा जा सकता है, तो फिर मैं नहीं समझता कि अपना धन किसे कहेंगे।
रामेश्वरी कुछ उत्तेजित होकर बोली–बातें बनाना बहुत आता है। तुम्हारा भतीजा है, तुम चाहे जो समझो, पर मुझे ये बातें अच्छी नहीं लगतीं। हमारे भाग ही फूटे हैं। नहीं तो ये दिन काहे को देखने पड़ते। तुम्हारा चलन तो दुनिया से निराला है। आदमी सन्तान के लिए न-जाने क्या-क्या करते हैं–पूजा-पाठ कराते हैं, व्रत रखते हैं; पर तुम्हें इन बातों से क्या काम? रात-दिन भाई-भतीजों में मगन रहते हो।
बाबू साहब के मुख पर घृणा का भव झलक आया। उन्होंने कहा–पूजा-पाठ, व्रत, सब ढकोसला है। जो वस्तु भाग में नहीं, वह पूजा-पाठ से कभी प्राप्त नहीं हो सकती। मेरा तो यही अटल विश्वास है।
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