कहानी संग्रह >> गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह) गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है
शतरंज के खिलाड़ी
(प्रेमचंद रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ भारत के सर्वश्रेष्ठ कहानी लेखक हैं। आप काशी के रहने वाले थे। आपने कानपुर से उर्दू पत्र ‘जमाना' में लेख लिखना शुरू किया। आपकी ‘प्रेम-पच्चीसी' और ‘सोजेवतन' यह दोनों प्रथम जमाना ही से प्रकाशित हुईं। सन् १९१४ से आप हिन्दी में लेख लिख रहे थे। आपके उपन्यास ‘सेवा-सदन', ‘वरदान'‘, कायाकल्प', ‘प्रेमाश्रम', ‘रंग-भूमि' ‘प्रतिज्ञा', कर्मभूमि' तथा ‘गबन' आदि प्रसिद्ध हो चुके हैं। आपकी कहानियों के कई संग्रह निकल चुके हैं- 'प्रेम-पूर्णिमा', ‘प्रेमपच्चीसी', ‘प्रेम-प्रसून', प्रेमतीर्थ'. सप्तसरोज', ‘नवनिधि', ‘पाँच फूल’, ‘मानसरोवर', कफन' आदि। आपकी गल्पों के अनुवाद भारत की सभी प्रान्तीय भाषाओं में हो चुके हैं। जहाँ वे बहुत चाव से पढ़ी जाती हैं। कुछ गल्पों के अनुवाद विदेशी भाषाओं जैसे जापानी, रूसी, जर्मन, डच, चेक तथा अंग्रेजी भाषा में भी हो चुके हैं। उर्दू के आप सबसे बड़े कहानीकार थे।
१९३६ ई. में आपकी मृत्यु से हिन्दी साहित्य की जो क्षति हुई उसका अनुमान नहीं किया जा सकता।)
वाजिदअली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था, तो कोई अफीम की पीनक ही के मजे लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद को प्राधान्य था। शासन विभाग में, साहित्य क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला कौशल में, उद्योग-धन्धों में, आहार-विहार में, सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही था। कर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में , व्यावसायी सुरमे, इत्र मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त थे। सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे हैं। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है। कहीं चौरस बिछी हुई है। पौ बारह का शोर मचा हुआ है। कही शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते। शतरंज ताश, गंजीफा खेलने में बुद्धि तीव्र होती है, विचार शक्ति का विकास होता है, पेंचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है, ये दलील जोर के साथ पेश की जाती थी। (इस सम्प्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी खाली नहीं है।) इसलिए अगर मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय बुद्धि-तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थीं, जीविका की कोई चिन्ता न थी। घर बैठे चखोतियाँ करते थे। आखिर और करते ही क्या? प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछा कर बैठ जाते, मुहरे सज जाते और लड़ाई के दाँवपेच होने लगते थे। फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई कब तीसरा पहर, कब शाम।
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