कहानी संग्रह >> गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह) गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है
घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता था - ‘खाना तैयार है।’ यहाँ से जबाव मिलता - ‘चलो आते है, दस्तर ख्वान बिछाओ।’ यहाँ तक कि बावरची विवश होकर कमरे में ही खाना रख जाता था, और दोनों मित्र दोनों काम साथ-साथ करते थे। मिर्जा सज्जाद अली के घर में कोई बड़ा-बूढा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियाँ होती थीं; मगर यह बात न थी कि मिर्जा के घर के और लोग उनके व्यवहार से खुश हों। घरवाली का तो कहना ही क्या, मुहल्ले वाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे–बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे किसी को इसकी चाट पड़े। आदमी दीन दुनिया किसी के काम का नहीं रहता, न घर का न घाट का। बुरा रोग है यहाँ तक कि मिर्जा की बेगम साहबा को इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोज कर पति को लताड़ती थीं; पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था। वह सोचती रहती थीं; तब तक उधर बाजी बिछ जाती थी। और रात को जब सो जातीं थी, तब कहीं मिर्जा जी भीतर आते थे। हाँ, नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थीं–क्या पान माँगे हैं? कह दो आकर ले जायँ। खाने की भी फुर्सत नही है? ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, खायँ चाहे कुत्ते को खिलावें। पर रूबरु वह कुछ न कह सकती थी। उनको अपने पति से उतना मलाल न था जितना मीर साहब से। उन्होंने उसका नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था। शायद मिर्जा जी अपनी सफाई देने के लिए सारा इल्जाम मीर साहब ही के सिर थोप देते थे।
एक दिन बेगम साहिबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौंडी से कहा–‘जाकर मिर्जा साहब को बुला लो। किसी हकीम के यहाँ से दवा लावें। दौड़, जल्दी कर। लौंडी गयी तो मिर्जा ने कहा–चल, अभी आते है।'
बेगम का मिजाज गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो, और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौड़ी से कहा–‘जाकर कह, अभी चलिए, नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायँगी।’
मिर्जा जी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे, दो ही किश्तों में मीर साहब की मात हुई जाती थी, झुँझलाकर बोले–‘क्या ऐसा दम लबों पर है? जरा सब्र नहीं होता?'
मीर–अरे, तो जाकर सुन ही आइए न। औरते नाजुक-मिजाज होती हैं।
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