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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…



 

बड़े भाई साहब

मेरे भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे, लेकिन केवल तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था, जब मैंने शुरू किया, लेकिन तालीम जैसे महत्वह के मामले में वह जल्दीनबाज़ी से काम लेना पसन्द न करते थे। इस भवन कि बुनियाद खूब मज़बूत डालनी चाहते थे, जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्तास न हो, तो मकान कैसे पायेदार बने।

मैं छोटा था, वह बड़े थे। मेरी उम्र नौ साल की, वह चौदह साल ‍के थे। उन्हेंै मेरी तम्बी ह और निगरानी का पूरा जन्म सिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्मो को क़ानून समझूँ।

वह स्वटभाव से बड़े अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते। और शायद दिमाग़ को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीकरें बनाया करते थें। कभी-कभी एक ही नाम या शब्दत या वाक्यं दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुन्द र अक्षर से नक़ल करते थे। कभी ऐसी शब्दल-रचना करते, जिस में, न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्यऐ! मसलन् एक बार उनकी कापी पर मैंने यह इबारत देखी–स्पेसशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर असल, भाई-भाई, राधेश्या–म, श्रीयुत राधेश्याोम, एक घंटे तक–इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने बहुत चेष्टाख की‍ कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूँ; लेकिन असफल रहा और उनसे पूछने का साहस न हुआ। वह नवीं जमात में थे, मैं पाँचवी में। उनकी रचनाओ को समझना मेरे लिए छोटा मुँह बड़ी बात थी।

मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौक़ा पाते ही होस्टनल से निकलकर मैदान में आ जाता, और कभी कंकरियाँ उछालता, कभी काग़ज की तितलियाँ उड़ाता, और कहीं कोई साथी मिल गया, तो पूछना ही क्याउ। कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे है, कभी फाटक पर सवार, उसे आगे पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनन्द उठा रहे हैं, लेकिन कमरे में आते ही भाई का वह रुद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल होता–‘कहाँ थे?’ हमेशा यही सवाल, इसी ध्वनि में हमेशा पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मुँह से यह बात क्यों  न निकलती कि ज़रा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीयकार है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि रोष से मिले हुए शब्दोंह में मेरा सत्काकर करें।

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