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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


‘इस तरह अँगरेजी पढ़ोगे, तो ज़िन्दंगी-भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ़ न आयेगा। अँगरेजी पढ़ना कोई हँसी-खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ ले, नही, ऐरा-गैरा नत्थूी-खैरा सभी अंगरेजी कि विद्धान् हो जाते। यहाँ रात-दिन आँखे फोड़नी पड़ती है और खून जलाना पढ़ता है, तब कहीं यह विधा आती है। और आती क्या- है, हाँ, कहने को आ जाती है। बड़े-बड़े विद्धान् भी शुद्ध अँगरेजी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा। और मैं कहता हूँ, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देख कर भी सबक़ नहीं लेते। मैं कितनी मेहनत करता हूँ, तुम अपनी आँखो देखते हो, अगर नहीं देखते, तो यह तुम्हाैरी आँखो का क़सूर है, तुम्हाभरी बुद्धि का क़सूर है। इतने मेले तमाशे होते हैं, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज़ ही क्रिकेट और हाकी मैच होते हैं। मैं पास नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहा हूँ; उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो तीन-तीन साल पड़ा रहता हूँ; फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल कूद में वक्त- गवाँ कर पास हो जाओगे? मुझे तो दो ही तीन साल लगते हैं, तुम उम्र भर इसी दरजे में पड़े सड़ते रहोगे। अगर तुम्हें़ इस तरह उम्र गँवानी है, तो बेहतर है, घर चले जाओ और मजे से गुल्लीँ डंडा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रुपये क्योर बरबाद करते हो?’

मैं यह लताड़ सुन कर आँसू बहाने लगता। जवाब ही क्याी था। अपराध तो मैंने किया, लताड़ कौन सहे? भाई साहब उपदेश कि कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्तिो बाण चलाते, कि मेरे जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते और हिम्मेत छूट जाती। इस तरह जान तोड़कर मेहनत करने कि शक्तित मैं अपने में नपाता था और उस निराशा में ज़रा देर के लिए मैं सोचने लगता–क्योंि न घर चला जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमे हाथ डालकर क्यों  अपनी ज़िन्दोगी खराब करूँ। मुझे अपना मूर्ख रहना मंजूर था; लेकिन उतनी मेहनत! मुझे तो चक्क़र आ जाता था। लेकिन घंटे दो घंटे बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगा कर पढ़ूँगा। चटपट एक टाइम टेबिल बना डालता। बिना पहले से नक्शाज बनाये, कोई स्कीदम तैयार किए काम कैसे शुरू करूँ? टाइम-टेबिल में, खेल कूद की मद बिलकुल उड़ जाती। प्रातःकाल उठना, छः बजे मुँह हाथ धो, नाश्ताब कर पढ़ने बैठ जाना। छः से आठ तक अंगरेजी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, ‍फिर भोजन और स्कूैल। साढ़े तीन बजे स्कूनल से वापस होकर आधा घंटा आराम, चार से पाँच तक भूगोल, पाँच से छः तक ग्रामर, आध घंटा होस्टबल के सामने टहलना, साढ़े छः से सात तक अंग्रेजी कम्पो जीशन, फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिन्दीढ, दस से ग्याोरह तक विविध विषय, फिर विश्राम।

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