लोगों की राय

कहानी संग्रह >> ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

221 पाठक हैं

उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


 

स्वामिनी

शिवदास ने भंडारे की कुंजी अपनी बहू रामप्याररी के सामने फेंककर अपनी बूढ़ी आँखों में आँसू भर कर कहा–बहू, आज से गिरस्ती  की देख-भाल तुम्हांरे ऊपर है। मेरा सुख भगवान् से नहीं देखा गया, नहीं तो क्या, जवान बेटे को यों छीन लेते! उसका काम करने वाला तो कोई चाहिए। एक हल तोड़ दूँ तो गुजारा न होगा। मेरे ही कुकरम से भगवान् का यह कोप आया है, और मैं ही अपने माथे पर उसे लूँगा। बिरजू का हल अब मैं ही सँभालूँगा। अब घर की देख-रेख करने वाला, धरने-उठानेवाला तुम्हाआरे सिवा दूसरा कौन है? रोओ मत बेटा, भगवान् की जो इच्छाख थी, वह हुआ; और जो इच्छात होगी, वह होगा। हमारा-तुम्हा रा क्यार बस है? मेरे जीते-जी तुम्हें  कोई टेढ़ी आँख से देख भी न सकेगा। तुम किसी बात का सोच मत करो। बिरजू गया, तो मैं तो अभी बैठा ही हुआ हूँ।

रामप्याकरी और रामदुलारी दो सगी बहनें थीं। दोनों का विवाह–मथुरा और बिरजू–दो सगे भाइयों से हुआ। दोनों बहनें नैहर की तरह ससुराल में भी प्रेम और आनन्द से रहने लगीं। शिवदास को पेन्शबन मिली। दिन-भर द्वार पर गप-शप करते। भरा-पूरा परिवार देखकर प्रसन्नक होते और अधिकतर धर्म-चर्चा में लगे रहते थे; लेकिन दैवगति से बड़ा लड़का बिरजू बीमार पड़ा और आज उसे मरे हुए पंद्रह दिन बीत गये। आज क्रिया-करम से फुरसत मिली और शिवदास ने सच्चेे कर्मवीर की भाँति फिर जीवन-संग्राम के लिए कमर कस ली। मन में उसे चाहे कितना ही दुःख हुआ हो, उसे किसी ने रोते नहीं देखा। आज अपनी बहू को देखकर एक क्षण के लिए उसकी आँखें सजल हो गयीं; लेकिन उसने मन को संभाला और रुद्ध कंठ से उसे दिलासा देने लगा। कदाचित् उसने सोचा था, घर की स्वाोमिनी बन कर विधवा के आँसू पुँछ जायँगे, कम-से-कम उसे इतना कठिन परिश्रम न करना पड़ेगा, इसलिए उसने भंडारे की कुंजी बहू के सामने फेंक दी थी। वैधव्यक की व्यंथा को स्वांमित्वब के गर्व से दबा देना चाहता था।

रामप्यांरी ने पुलकित कंठ से कहा–यह कैसे हो सकता है दादा, कि तुम मेहनत-मजूरी करो और मैं मालकिन बन कर बैठूं? काम-धन्धे में लगी रहूँगी, तो मन बदला रहेगा। बैठे-बैठे तो रोने के सिवा और कुछ न होगा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book