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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


रामप्याररी ने रूखाई से कहा–अभी तो एक पैसा घर में नहीं है जीजी, क्रिया-कर्म में सब खरच हो गया।

झुनिया चकरा गयी। चौधरी के घर में इस समय एक रुपया भी नहीं है, यह विश्वामस करने की बात न थी। जिसके यहाँ सैकड़ों का लेन-देन है, वह सब कुछ क्रिया-कर्म में नहीं खर्च कर सकता। अगर शिवदास ने बहाना किया होता, तो उसे आश्चसर्य न होता। प्या री तो अपने सरल स्वनभाव के लिए गाँव में मशहूर थी। अकसर शिवदास की आँखें बचा कर पड़ोसियों को इच्छित वस्तुभएँ दे दिया करती थी। अभी कल ही उसने जानकी को सेर-भर दूध दिया। यहाँ तक कि अपने गहने तक माँगे दे देती थी। कृपण शिवदास के घर में ऐसी सखरच बहू का आना गाँव वाले अपने सौभाग्यद की ताससमझते थे।

झुनिया ने चकित हो कर कहा–ऐसा न कहो जीजी, बड़े गाढ़े में पड़ कर आयी हूँ, नहीं तुम जानती हो, मेरी आदत ऐसी नहीं है। बाकी  का एक रुपया देना है। प्यारदा द्वार पर खड़ा बक-झक कर रहा है। आठवें दिन आ कर दे जाऊँगी। गाँव में और कौन घर है, जहाँ माँगने जाऊँ?

प्याीरी टस से मस न हुई।

उसके जाते ही प्याटरी साँझ के लिए रसोई-पानी का इन्तजाम करने लगी। पहले चावल-दाल बिनना अपाढ़ लगता था और रसोई में जाना तो सूली पर चढ़ने से कम न था। कुछ देर दोनों बहनों में झाँव-झाँव होती, तब शिवदास आ कर कहते, क्या- आज रसोई न बनेगी, तो दो में से एक उठती और मोटे-मोटे टिक्केड़ लगाकर रख देती, मानो बैलों का रातिब हो। आज प्याोरी तन-मन से रसोई के प्रबन्ध में लगी हुई है। अब वह घर की स्वाबमिनी है।

तब उसने बाहर निकल कर देखा, कितना कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है! बुढ़ऊ दिन-भर मक्खीब मारा करते हैं, इतना भी नहीं होता कि जरा झाड़ू ही लगा दें। अब क्याह इनसे इतना भी न होगा? द्वार चिकना चाहिए कि देख कर आदमी का मन प्रसन्ना हो जाय। यह नहीं कि उबकाई आने लगे। अभी कह दूँ, तो तिनक उठेंगे। अच्छा्, यह मुन्नीक नाँद से अलग क्यों  खड़ी है?

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