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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


दुलारी–मेरा लड़का पढ़े-लिखेगा, कोई बड़ा हुद्दा पायेगा। तुम्हा री तरह दिन भर बैल के पीछे न चलेगा। मालकिन का कहना है, कल एक पालना बनवा दें।

मथुरा–अब बहुत सबेरे न उठा करना और छाती फाड़ कर काम भी न करना।

दुलारी–यह महारानी जीने देंगी?

मथुरा–मुझे तो बेचारी पर दया आती है। उसके कौन बैठा हुआ है? हमी लोगों के लिए मरती है। भैया होते; तो अब तक दो-तीन बच्चोंव की माँ हो गयी होती।

प्या री के कंठ में आँसुओं का ऐसा वेग उठा कि उसे रोकने में सारी देह काँप उठी। अपना वंचित जीवन उसे मरूस्थपल-सा लगा, जिसकी सूखी रेत पर वह हरा-भरा बाग लगाने की निष्फहल चेष्टाठ कर रही थी।

सहसा शिवदत्त ने भीतर आ कर कहा–बड़ी बहू, क्या सो गयी! बाजेवालों को अभी परोसा नहीं मिला। क्या कह दूँ!

कुछ दिनों के बाद शिवदत्त  भी मर गया। उधर दुलारी के दो बच्चेक और हुए। वह अधिकतर बच्चोंब के लालन-पालन में व्यास्त् रहने लगी। खेती का काम मजदूरों पर आ पड़ा। मथुरा मजदूर तो अच्छा  था, संचालक अच्छाय न था। उसे स्व तन्त्र रूप से काम लेने का कभी अवसर न मिला। खुद पहले भाई की निगरानी में काम करता रहा। बाद को बाप की निगरानी के काम करने लगा। खेती का तार भी न जानता था। वही मजूर उसके यहाँ टिकते थे, जो मेहनत नहीं, खुशामद करने में कुशल होते थे, इसलिए प्यातरी को अब दिन में दो-चार चक्कंर हार के भी लगाना पड़ता। कहने को वह अब भी मालकिन थी, पर वास्तेव में घर भर की सेविका थी। मजूर भी उससे त्योनरियाँ बदलते, जमींदार का प्यािदा भी उसी पर धौंस जमाता। भोजन में किफ़ायत करनी पड़ती; लड़कों को तो जितनी बार माँगे, उतनी बार कुछ-न-कुछ चाहिए। दुलारी तो लड़कौरी थी, उसे भी भर-पूर भोजन चाहिए। मथुरा घर का सरदार था, उसके इस अधिकार को कौन छीन सकता था?  मजूर भला क्योंद रियायत करने लगे थे। सारी कसर प्याररी पर निकलती थी। वही एक फालतू चीज थी; अगर आधा पेट खाय, तो किसी को हानि न हो सकती थी। तीस वर्ष की अवस्थाच में उसके बाल पक गये, कमर झुक गयी, आँखों की जोत कम हो गयी; मगर वह प्रसन्नी थी। स्वालमित्व का गौरव इन सारे जख्मोंौ पर मरहम का काम करता था।

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