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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

देवी-2

बूढों में जो एक तरह की बच्चों की-सी बेशर्मी आ जाती है वह इस वक़्त भी तुलिया में न आयी थी, यद्यपि उसके सिर के बाल चाँदी हो गये थे। और गाल लटक कर दाढ़ों के नीचे आ गये थे। वह खुद भी निश्चित रूप से अपनी उम्र न बता सकती थी, लेकिन लोगों का अनुमान था कि वह सौ की सीमा को पार कर चुकी है। और अभी तक चलती तो अंचल से सिर ढाँककर, आँखें नीची किये हुए, मानो नवेली बहू है। थी तो चमारिन, पर क्या मज़ाल कि किसी घर का पकवान देखकर उसका जी ललचाया। गाँव में ऊँची जातों के बहुत-से घर थे। तुलिया का सभी जगह आना-जाना था। सारा गाँव उसकी इज़्ज़त करता था और गृहिणियाँ तो उसे श्रद्धा की आँखों से देखती थीं। उसे आग्रह के साथ अपने घर बुलातीं, उसके सिर में तेल डालतीं, माँग में सेंदूर भरती, कोई अच्छी चीज़ पकाई होती, जैसे हलवा या खीर या पकौड़ियाँ, तो उसे खिलाना चाहतीं, लेकिन बुढ़िया को जीभ से सम्मान कहीं प्यारा था। कभी न खाती। उसके आगे-पीछे कोई न था। उसके टोले के लोग कुछ तो गाँव छोड़कर भाग गये थे, कुछ प्लेग और मलेरिया की भेंट हो गये थे और अब थोड़े-से खंडहर मानो उनकी याद में नंगे सिर खड़े छाती-सी पीट रहे थे। केवल तुलिया की मड़ैया ही जिन्दा बच रही थी, और यद्यपि तुलिया जीवन-यात्रा की उस सीमा के निकट पहुँच चुकी थी, जहाँ आदमी धर्म और समाज के सारे बन्धनों से मुक्त हो जाता हैं और अब श्रेष्ठ प्राणियों को भी उससे उसकी जात के कारण कोई भेद न था, सभी उसे अपने घर में आश्रय देने को तैयार थे, पर मान-प्रिय बुढ़िया क्यों किसी का एहसान ले, क्यों अपने मालिक की इज़्ज़त में बट्टा लगाये, जिसकी उसने सौ बरस पहले केवल एक बार सूरत देखी थी। हाँ, केवल एक बार!

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