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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘इस जमाने में कौन किसका साथ देता है तुलिया? जब अपने घरवालों ने ही साथ नहीं दिया और तेरे भैया के मरते ही मेरे ख़ून के प्यासे हो गये, तो फिर मैं और किससे आशा रखूँ? तुझसे मेरे घर का हाल कुछ छिपा है? वहाँ मेरे लिए अब जगह नहीं है। जिस देवर-देवरानी के लिए मैं प्राण देती थी, वही अब मेरे दुश्मन हैं। चाहते हैं कि यह एक रोटी खाय और अनाथों की तरह पड़ी रहे। मैं रखेली नहीं हूँ उढ़री हूँ, ब्याहता हूँ, दस गाँव के बीच में ब्याह के आयी हूँ। अपनी रत्ती-भी जायदाद न छोडूँगी आज कोई न दे, मैं दुखिया हूँ, लेकिन चाहे मेरी आबरू जाय, इनको मिटा के छोड़ूँगी और अपना आधा लेकर रहूँगी।’

‘तेरे भैया’, ये दो शब्द तुलिया को इतने प्यारे लगे कि उसने ठकुराइन को गले लगा लिया और उसका हाथ पकड़कर बोली– तो बहिन, मेरे घर में चलकर रहो। और कोई साथ दे या न दे, तुलिया मरते दम तक तुम्हारा साथ देगी। मेरा घर तुम्हारे लायक नहीं है, लेकिन घर में और कुछ नहीं शान्ति तो है और मैं कितनी ही नीच हूँ, तुम्हारी बहिन तो हूँ।

ठकुराइन ने तुलिया के चेहरे पर अपनी विस्मय-भरी आँखें जमा दीं।

‘ऐसा न हो मेरे पीछे मेरा देवर तुम्हारा भी दुश्मन हो जाय।’

‘मैं दुश्मनों से नहीं डरती, नहीं इस टोले में अकेली न रहती।’

‘लेकिन मैं तो नहीं चाहती कि मेरे कारन तुझ पर आफ़त आवे।’

‘तो उनसे कहने ही कौन जाता है, और किसे मालूम होगा कि अन्दर तुम हो।’

ठकुराइन को ढाढ़स बंधा। सकुचाती हुई तुलिया के साथ अन्दर आयी। उसका हृदय भारी था। जो एक विशाल पक्के की स्वामिनी थी, आज इस झोपड़ी में पड़ी हुई है।

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