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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


घर में एक ही खाट थी, ठकुराइन बच्चे के साथ उस पर सोती। तुलिया जमीन पर पड़ रहती। एक ही कम्बल था, ठकुराइन उसको ओढ़ती, तुलिया टाट का टुकड़ा ओढ़कर रात काटती। मेहमान का क्या सत्कार करे, कैसे रक्खे, यही सोचा करती। ठकुराइन के जूठे बरतन माँजना, कपड़े छांटना, उसके बच्चे को खिलाना ये सारे काम वह इतने उमंग से करती, मानो देवी की उपासना कर रही हो। ठकुराइन इस विपत्ति में भी ठकुराइन थी, गर्विणी, विलासप्रिय, कल्पनाहीन। इस तरह रहती थी मानो उसी का घर है और तुलिया पर इस तरह रोब जमाती थी मानो वह उसकी लौंडी है। लेकिन तुलिया अपने अभागे प्रेमी के साथ प्रीति की रीति का निबाह कर रही थी, उसका मन कभी न मैला होता, माथे पर कभी न बल पड़ता।

एक दिन ठकुराइन ने कहा– तुला, तुम बच्चे को देखती रहना, मैं दो-चार दिन के लिए जरा बाहर जाऊँगी। इस तरह तो यहाँ ज़िन्दगी-भर तुम्हारी रोटीयाँ तोड़ती रहूँगी, पर दिल की आग कैसे ठण्डी होगी? इस बेहया को इसकी लाज कहाँ कि उसकी भावज कहाँ चली गयी। वह तो दिल में खुश होगा कि अच्छा हुआ उसके मार्ग का काँटा हट गया। ज्यों ही पता चला कि मैं अपने मैके नहीं गयी, कहीं और पड़ी हूँ, वह तुरन्त मुझे बदनाम कर देगा और तब सारा समाज उसी का साथ देगा। अब मुझे कुछ अपनी फिक्र करनी चाहिए।

तुलिया ने पूछा– कहाँ जाना चाहती हो बहिन? कोई हर्ज न हो तो मैं भी साथ चलूँ। अकेली कहाँ जाओगी?

‘उस सांप को कुचलने के लिए कोई लाठी खोजूँगी।’

तुलिया इसका आशक न समझ सकी। उसके मुख की ओर ताकने लगी।

इकुराइन ने निर्लज्ज्ता के साथ कहा– तू इतनी मोटी-सी बात भी नहीं समझी! साफ़-साफ़ ही सुनना चाहती है? अनाथ स्त्री के पास अपनी रक्षा का अपने रूप के सिवा दूसरा कौन अस्त्र है? अब उसी अस्त्र से काम लूँगी। जानती है, इस रूप के क्या दाम होंगे? इस भेड़िये का सिर। इस परगने का हाकिम जो कोई भी हो उसी पर मेरा जादू चलेगा। और ऐसा कौन मर्द है जो किसी युवती के जादू से बच सके, चाहे वह ऋषि ही क्यों न हो। धर्म जाता है जाय, मुझ परवाह नहीं। मैं यह नहीं देख सकती कि मैं बन-बन की पत्तियाँ तोडूँ और वह शोहदा मूँछों पर ताव देकर राज करे।

तुलिया को मालूम हुआ कि इस अभिमानिनी के हृदय पर कितनी गहरी चोट है इस व्यथा को शान्त करने के लिए वह जान ही पर नहीं खेल रही है, धर्म पर खेल रही है जिसे वह प्राणों से भी प्रिय समझती है। बंसीसिंह की वह प्रार्थी मूर्ति उसकी आँखों के समाने आ खड़ी हुई। वह बलिष्ठ था, अपनी फौलादी शक्ति से वह बड़ी आसानी के साथ तुलिया पर बल प्रयोग कर सकता था, और उस रात के सन्नाटे में उस आनाथा की रक्षा करने वाला ही कौन बैठा हुआ था। पर उसकी सतीत्व-भरी भर्त्सना ने बंसीसिंह को किस तरह मोहित कर लिया, जैसे कोई काला भयंकर नाग महुअर का सुरीला राग सुनकर मस्त हो गया हो। उसी सच्चे सूरमा की कुली-मर्यादा आज संकट में है। क्या तुलिया उस मार्यादा को लुटने देगी और कुछ न करेगी? नहीं-नहीं! अगर बंसीसिंह ने उसके सत् को अपने प्राणों से प्रिय समझा तो वह भी उसकी आबरू को अपने धर्म से बचायेगी।

उसने ठकुराइन को तसल्ली देते हुए कहा– अभी तुम कहीं मत जाओ बहिन पहले मुझे अपनी शक्ति आजमा लेने दो। मेरी आबरू चली भी गयी तो कौन हँसेगा। तुम्हारी आबरू के पीछे तो एक कुल की आबरू है।

ठकुराइन ने मुस्कराकर उसको देखा। बोली– तू यह कला क्या जाने तुलिया?

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