कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
सादिक एक प्रतिष्ठित कुल का दीपक है, बहुत ही शुद्ध आचरण, यहाँ तक कि उसे ठण्डे स्वभाव का भी कह सकते हैं, बहुत घमंडी, देखने में चिड़चिड़ा लेकिन अब वह भी शहीदों में दाखिल हो गया है। कल आप हेलेन को अपने शेर सुनाते रहे और वह खुश होती रही। मुझे तो उन शेरों में कुछ मज़ा न आया। इससे पहले मैंने इन हज़रत को कभी शायरी करते नहीं देखा, यह मस्ती कहाँ से फट पड़ी है? रूप में जादू की ताक़त है और क्या कहूँ। इतना भी न सूझा कि उसे शेर ही सुनाना है तो हसरत या जिगर या जोश के कलाम से दो-चार शेर याद कर लेता। हेलेन सबका कलाम पढ़े थोड़े ही बैठी है। आपको शेर कहने की क्या ज़रूरत मगर यही बात उनसे कह दूँ तो बिगड़ जायेंगे, समझेंगे मुझे जलन हो रही है। मुझे क्यों जलन होने लगी। हेलेन की पूजा करनेवालों में एक मैं ही हूँ? हाँ, इतना ज़रूर चाहता है कि वह अच्छे-बुरे की पहचान कर सके, हर आदमी के बेतकल्लुफ़ी मुझे पसन्द नहीं, मगर हेलेन की नज़रों में सब बराबर हैं। वह बारी-बारी से सबसे अलग हो जाती है और सबसे प्रेम करती है। किसकी ओर ज़्यादा झुकी है, यह फैसला करना मुश्किल है। सादिक की धन-सम्पत्ति से वह ज़रा भी प्रभावित नहीं जान पड़ती। कल शाम को हम लोग सिनेमा देखने गये थे। सादिक ने आज असाधारण उदारता दिखाई। जेब से वह रुपया निकाल कर सबके लिए टिकट लेने चले। मियां सादिक़ जो इस अमीरी के बावजूद तंगदिल आदमी हैं, मैं तो कंजूर कहूँगा, हेलेन ने उनकी उदारता को जगा दिया है। मगर हेलेन ने उन्हें रोक लिया और खुद अंदर जाकर सबके लिए टिकट लायी। और यों भी वह इतनी बेदर्दी से रुपया खर्च करती है कि मियां सादिक के छक्के छूट जाते हैं। जब उनका हाथ जेब में जाता है, हेलेन के रुपये काउन्टर पर जा पहुँचते हैं। कुछ भी हो, मैं तो हेलेन के स्वभाव-ज्ञान पर जान देता हूँ। ऐसा मालूम होता है वह हमारी फ़र्माइशों का इन्तज़ार करती रहती है और उनको पूरा करने में उसे खास मज़ा आता है। सादिक साहब को उसने अलबम भेंट कर दिया जो योरोप के दुर्लभ चित्रों की अनुकृतियों का संग्रह है और जो उसने योरोप की तमाम चित्रशालाओं में जाकर खुद इकट्ठा किया है। उसकी आँखें कितनी सौंदर्य-प्रेमी है। बृजेन्द्र जब शाम को अपना नया सूट पहन कर आया, जो उसने अभी सिलाया है, तो हेलेन ने मुस्करा कर कहा– देखो कहीं नज़र न लग जाय तुम्हें! आज तो तुम दूसरे युसूफ बने हुए हो। बृजेन्द्र बाग-बाग हो गया। मैंने जब लय के साथ अपनी ताजा गज़ल सुनायी तो वह एक-एक शेर पर उछल-उछल पड़ी। अद्भुत काव्यमर्मज्ञ है। मुझे अपनी कविता-रचना पर इतनी खुशी कभी न हुई थी मगर तारीफ़ जब सबका बुलौवा हो जाये तो उसकी क्या क़ीमत। मियां सादिक को कभी अपनी सुन्दरता का दावा नहीं हुआ। भीतरी सौंदर्य से आप जितने मालामाल हैं बाहरी सौंदर्य में उतने ही कंगाल। मगर आज शराब के दौर में ज्यों ही उनकी आँखों में सुर्खी आयी हेलेन ने प्रेम से पगे हुए स्वर में कहा– भई, तुम्हारी ये आँखें तो जिगर के पार हुई जाती हैं। और सादिक साहब उस वक़्त उसके पैरों पर गिरते-गिरते रुक गये। लज्जा बाधक हुई। उनकी आँखों की ऐसी तारीफ़ शायद ही किसी ने की हो। मुझे कभी अपने रूप-रंग, चाल-ढाल की तारीफ़ सुनने की इच्छा नहीं हुई। मैं जो कुछ हूँ, जानता हूँ। मुझे अपने बारे में यह धोखा कभी नहीं हो सका कि मैं ख़ूबसूरत हूँ। यह भी जनता हूँ कि हेलेन का यह सब सत्कार कोई मतलब नहीं रखता। लेकिन अब मुझे भी यह बेचैनी होने लगी कि देखो मुझ पर क्या इनायत होती है। कोई बात न थी, मगर मैं बेचैन रहा। जब मैं शाम को यूनिवर्सिटी ग्राउण्ड से खेल की प्रैक्टिस करके आ रहा था तो मेरे ये बिखरे हुए बाल कुछ और ज़्यादा बिखरे गये थे। उसने आसक्त नेत्रों से देखकर फौरन कहा-तुम्हारी इन बिखरी हुई जुल्फों पर निसार होने को जी चाहता है! मैं निहाल हो गया, दिल में क्या-क्या तूफ़ान उठे कह नहीं सकता।
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