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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


शुक्र है, हज़ार शुक्र हैं, बड़े बाबू हँसे। जैसे हाँडी उबल पड़ी हो। वह गरज और वह करख़्त आवाज़ न थी। मेरा माथा रगड़ना आख़िर कहाँ तक असर न करता। शायद असर को मेरी दुआ से दुश्मनी नहीं। मेरे कान बड़ी बेक़रारी से वे लफ़्ज सुनने के लिए बेचैन हो रहे थे जिनसे मेरी रूह को खुशी होगी। मगर आह, जितनी मायूसी इन कानों को हुई है उतनी शायद पहाड़ खोदने वाले फ़रहाद को भी न हुई होगी। वह मुस्कराहट न थी, मेरी तक़दीर की हँसी थी। हुजूर ने फ़रमाया– बड़ी खुशी की बात है, मुल्क और क़ौम के लिए इससे ज़्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है। मेरी दिली तमन्ना है, मुल्क का हर एक नौजवान ग्रेजुएट हो जाय। ये ग्रेजुएट ज़िन्दगी के जिस मैदान में जाय, उस मैदान को तरक़्क़ी ही देगा– मुल्की, माली, तमद्दुनी, मज़हबी, ग़रज कि हर एक किस्म की तहरीक का जन्म और तरक्की ग्रेजुएटों ही पर मुनहसर है। अगर मुल्क में ग्रेजुएटों का यह अफ़सोसनाक अकाल न होता तो असहयोग की तहरीक क्यों इतनी जल्दी मुर्दा हो जाती! क्यों बने हुए रंगे सियार, दग़ाबाज ज़रपरस्त लीडरों को डाकेज़नी के ऐसे मौक़े मिलते! तबलीग़ क्यों मुबल्लिग़े अलेहुस्सलाम की इल्लत बनती! ग्रेजुएट में सच और झूठ की परख, निगाह का फैलाव और जांचने-तोलने की क़ाबलियत होना ज़रूरी बात है। मेरी आँखें तो ग्रेजुएटों को देखकर नशे के दर्जे तक खुशी से भर उठती हैं। आप भी खुदा के फ़जल से अपनी क़िस्म की बहुत अच्छी मिसाल हैं, बिल्कुल अप-टू-डेट। यह शेरवानी तो बरकत एण्ड को० की दुकान की सिली हुई होगी। जूते भी डासन के हैं। क्यों न हो। आप लोंगों ने कौम की ज़िन्दगी के मेयार को बहुत ऊँचा बना दिया है और अब वह बहुत जल्द अपनी मंज़िल पर पहुँचेगी। ब्लैकबर्ड पेन भी है, वेस्ट एण्ड की रिस्टवाच भी है। बेशक अब कौमी बेड़े को ख़्वाजा खिज़र की ज़रूरत भी नहीं। वह उनकी मिन्नत न करेगा।

हाय तक़दीर और वाय तक़दीर! अगर जानता कि यह शेरवानी और फ़ाउंटेनपेन और रिस्टवाज यों मज़ाक का निशाना बनेगी, तो दोस्तों का एहसान क्यों लेता। नमाज़ बख़्शवाने आया था, रोज़े गले पड़े। किताबों में पढ़ा था, ग़रीबी की हुलिया ऐलान है अपनी नाकामी का, न्यौता देना है अपनी जिल्लत को। तजुर्बा भी यही कहता था। चीथड़े लगाये हुए भिखमंगों को कितनी बेदर्दी से दुतकारता हूँ लेकिन जब कोई हज़रत सूफ़ी-साफ़ी बने हुए, लम्बे-लम्बे बाल कंधों पर बिखेरे, सुनहरा अमामा सर पर बांका-तिरछा शान से बांधे, संदली रंग का नीचा कुर्ता पहने, कमरे में आ पहुँचते हैं तो मजबूर होकर उनकी इज़्ज़त करनी पड़ती है और उनकी पाकीज़गी के बारे में हज़ारों शुबहे पैदा होने पर भी छोटी-छोटी रक़म जो उनकी नज़र की जाती है, वह एक दर्जन भिखारियों को अच्छा खाना खिलाने के सामान इकट्ठा कर देती। पुरानी मसल है– भेस से ही भीख मिलती है। पर आज यह बात ग़लत साबित हो गयी। अब बीवी साहिबा की वह तम्बीह याद आयी जो उसने चलते वक़्त दी थी– क्यों बेकार अपनी बइज़्ज़ती कराने जा रहे हो। वह साफ़ समझेंगे कि यह मांगे-जांचे का ठाठ है। ऐसे रईस होते तो मेरे दरवाज़े पर आते क्यों। उस वक़्त मैंने इस तम्बीह को बीवी की कमनिगाह और उसका गंवारपन समझा था। पर अब मालूम हुआ कि गंवारिनें भी कभी-कभी सूझ की बातें कहती हैं। मगर अब पछताना बेकार है। मैंने आज़िज़ी से कहा– हुजूर, कहीं मेरी भी परवरिश फ़रमायें।

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