कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
मुझे जवाब देने में ज़रा देर हुई। सच यह है कि मैं भी आदमी हूँ और बीसवीं सदी का आदमी हूँ। मैं बहुत जागा हुआ न सही, मगर बिलकुल सोया हुआ भी नहीं हूँ, मैं भी अपने मुल्क और क़ौम को बुलन्दी पर देखना चाहता हूँ। मैंने तारीख़ पढ़ी है और उससे इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि मज़हब दुनिया में सिर्फ़ एक है और उसका नाम है– दर्द। मज़हब की मौजूदा सूरत धड़ेबंदी के सिवाय और कोई हैसियत नहीं रखती। ख़तने या चोटी से कोई बदल नहीं जाता। पूजा के लिए कलीसा, मसजिद, मन्दिर की मैं बिलकुल ज़रूरत नहीं समझता। हाँ, यह मानता हूँ कि घमण्ड और खुदग़रजी को दबाये रखने के लिए कुछ करना ज़रूरी है। इसलिए नहीं कि उससे मुझे जन्नत मिलेगी या मेरी मुक्ति होगी, बल्कि सिर्फ़ इसलिए कि मुझे दूसरों के हक़ छीनने से नफ़रत होगी। मुझमें खुदी का खासा जुज़ मौजूद है। यों अपनी खुशी से कहिए तो आपकी जूतियाँ सीधी करूँ लेकिन हुकूमत की बरदाश्त नहीं। महकूम बनना शर्मनाक समझता हूँ। किसी ग़रीब को जुल्म का शिकार होते देखकर मेरे ख़ून में गर्मी पैदा हो जाती है। किसी से दबकर रहने से मर जाना बेहतर समझता हूँ। लेकिन ख़याल हालतों पर तो फ़तह नहीं पा सकता। रोज़ी की फ़िक्र तो सबसे बड़ी। इतने दिनों के बाद बड़े बाबू की निगाहे करम को अपनी ओर मुड़ता देखकर मैं इसके सिवा कि अपना सिर झुका दूँ, दूसरा कर ही क्या सकता था। बोला– जनाब, मेरी तरफ़ से भरोसा रक्खें। मालिक की खिदमत में अपनी तरफ़ से कुछ उठा न रक्खूँगा।
‘ग़ैरत को फ़ना कर देना होगा।’
‘मंजूर।’
‘शराफत के जज़्बों को उठाकर ताक़ पर रख देना होगा।’
‘मंजूर।’
‘मुख़बिरी करनी पड़ेगी?’
‘मंजूर।’
‘तो बिस्मिल्लाह, कल से आपका नाम उम्मीदवारों की फ़ेहरिस्त में लिख दिया जायेगा।’
मैंने सोचा था कल से कोई जगह मिल जायेगी। इतनी जिल्लत क़बूल करने के बाद रोज़ी की फ़िक्र से तो आज़ाद हो जाऊँगा। अब यह हक़ीकत खुली। बरबस मुँह से निकला– और जगह कब तक मिलेगी?
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