कहानी संग्रह >> हिन्दी की आदर्श कहानियाँ हिन्दी की आदर्श कहानियाँप्रेमचन्द
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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ
रघुबर ने कहा–‘ नहीं भाई, मैं क्या जानूँ, मुझे तो यहीं पड़ी मिली है।’
झुरही ने तमककर कहा–‘तू झूठा है; आज से तेरा मुँह न देखूँगी।’ इतना कहती हुई वह निकलकर चल दी। पीछे भूलकर भी उसने नहीं देखा। रघुबर समझा था कि एक आध दिन में ठोकर खाकर वह आ जाएगी। परंतु झुरही के उपवास के शरीर में क्रोध का भोजन शक्ति दे रहा था। वह कई दिन तक न आयी। रघुबर ने सकही को भुलाने का प्रयत्न किया और भूल भी गया। कभी-कभी कुछ ध्यान आ जाता, परन्तु उसकी कर्कशता उस चित्र को सहसा मिटा देती।
मैंने इस विच्छेद की सारी गाथा सुनी। मुझे इस बात पर बड़ा कौतूहल था कि पति से इतनी विमुख, उसे मारने में भी संकोच न करने वाली सकही के लिए अपने सोहाग-चिह्न में क्यों इतना आकर्षण है! इस रहस्य को मैं समझता था। झुरही का मैंने कई बार पता लगाया, परन्तु कोई परिणाम न हुआ। कुंकुम लगाने के बाद वह मुझे प्रतिदिन पालागन किया करती थी। उसके सहसा चले जाने से मुझे कुछ कमी सी दीखने लगी और झगड़े की कमी के कारण मुहाल कुछ सूना होने लगा।
एक वर्ष व्यतीत हो गया। पेंसिल की लिपि के भाँति झुरही की स्मृति भी मेरे मन में अस्पष्ट हो गयी थी। लखनऊ की नरही गली में घूम रहा था, अनायास एक कोने से एक शब्द सुनायी दिया–‘बाबू एक पैसा!’
मेरा ध्यान उधर गया। झुरही उर्फ़ सकही मुझे देखकर मुस्करा तो दी परन्तु लज्जित हो गयी। मैंने मुस्कराते हुए कहा–‘सकही, यहाँ कहाँ? कानपुर क्यों छोड़ आयी? रघुबर तुझे याद करता है। मुहाल सूना हो गया।’
सकही के मुँह पर रंग दौड़ गया। उसने पहले पालागन किया और फिर कहने लगी, बाबू जी मुझे बड़ा कष्ट था। आपकी बड़ी कृपा है। मुझे और किसी की परवाह नहीं।
सकही के भाल पर कुंकुम दमक रहा था। मुझे उस पर बड़ी दया आयी। मैंने उसे एक रुपया निकालकर दे दिया। सकही ने उसे आग्रह-पूर्वक वापस कर दिया और केवल एक आना लेकर कृतकृत्य हो गयी। मैंने थोड़ा हँसकर कहा–‘सकही, यह तो बता कि तू चरस अब भी पीती है न?’
सकही ने दाँत निकालकर थोड़ा मुस्कराते हुए कहा–बाबू जी, वह कैसे छूट सकती है? वह तो मरने पर ही छूटेगी।’
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